Friday 3 April 2020

नागार्जुन का अनमोल शास्त्र रस रत्नाकर के बारे मे महत्वपूर्ण बातें।

नागार्जुन ने रसायन शास्त्र और धातु विज्ञान पर बहुत शोध कार्य किया । रसायन शास्त्र पर इन्होंने कई पुस्तकों की रचना की । जिनमें " रस रत्नाकर " और " रसेन्द्र मंगल " बहुत प्रसिद्ध हैं । रसायन शास्त्री व धातुकर्मी होने के साथ साथ इन्होंने अपनी चिकित्सकीय ‍सूझबूझ से अनेक असाध्य रोगों की औषधियाँ तैयार की । चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में इनकी प्रसिद्ध पुस्तकें " कक्षपुटतंत्र " " आरोग्य मंजरी " " योगसार " और " योगाष्टक " हैं ।
रस रत्नाकर ग्रंथ में मुख्य रस माने गए निम्न रसायनों का उल्लेख किया गया है ।
1 महा रस 2  उप रस 3  सामान्य रस 4  रत्न 5  धातु 6  विष 7 क्षार 8 अम्ल 9 लवण 10 भस्म ।
महा रस इतने है -
1 अभ्रं 2 वैक्रान्त 3  भाषिक 4 विमला 5  शिलाजतु 6 सास्यक 7 चपला 8 रसक
उप रस -
1 गंधक 2 गैरिक 3 काशिस 4 सुवरि 5 लालक 6 मन:शिला 7 अंजन 8 कंकुष्ठ
सामान्य रस -
1 कोयिला 2 गौरी पाषाण 3 नवसार 4 वराटक 5 अग्निजार 6 लाजवर्त 7 गिरि सिंदूर 8 हिंगुल 9  मुर्दाड श्रंगकम्‌
इसी प्रकार 10 से अधिक विष हैं । रस रत्नाकर अध्याय 9 में रसशाला यानी प्रयोगशाला का विस्तार से वर्णन भी

है । इसमें 32 से अधिक यंत्रों का उपयोग किया जाता था । जिनमें मुख्य हैं - 1 दोल यंत्र 2 स्वेदनी यंत्र 3 पाटन यंत्र 4 अधस्पदन यंत्र  5 ढेकी यंत्र 6 बालुक यंत्र 7 तिर्यक्‌ पाटन यंत्र 8 विद्याधर यंत्र 9 धूप यंत्र 10 कोष्ठि यंत्र 11 कच्छप यंत्र 12 डमरू यंत्र ।
प्रयोगशाला में नागार्जुन ने पारे पर बहुत प्रयोग किए । विस्तार से उन्होंने पारे को शुद्ध करना । और उसके औषधीय प्रयोग की विधियां बताई हैं । अपने ग्रंथों में नागार्जुन ने विभिन्न धातुओं का मिश्रण तैयार करने । पारा तथा अन्य धातुओं का शोधन करने । महा रसों का शोधन । तथा विभिन्न धातुओं को स्वर्ण या रजत में परिवर्तित करने की विधि दी है ।
पारे के प्रयोग से न केवल धातु परिवर्तन किया जाता था । अपितु शरीर को निरोगी बनाने और दीर्घायुष्य के लिए उसका प्रयोग होता था । भारत में पारद आश्रित रस विद्या अपने पूर्ण विकसित रूप में स्त्री  पुरुष प्रतीकवाद से जुड़ी है । पारे को शिव तत्व तथा गन्धक को पार्वती तत्व माना गया । और इन दोनों के हिंगुल के साथ जुड़ने पर जो द्रव्य उत्पन्न हुआ । उसे रस सिन्दूर कहा गया । जो आयुष्य वर्धक सार के रूप में माना गया ।
पारे की रूपान्तरण प्रक्रिया - इन ग्रंथों से यह भी ज्ञात होता है कि रस शास्त्री धातुओं और खनिजों के हानिकारक गुणों को दूर कर । उनका आन्तरिक उपयोग करने हेतु । तथा उन्हें पूर्णत: योग्य बनाने हेतु विविध शुद्धिकरण की प्रक्रियाएं करते थे । उसमें पारे को 18 संस्कार यानी शुद्धिकरण प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था । इन प्रक्रियाओं

में औषधि गुण युक्त वनस्पतियों के रस और काषाय के साथ पारे का घर्षण करना । और गन्धक, अभ्रक तथा कुछ क्षार पदार्थों के साथ पारे का संयोजन करना प्रमुख है । रसवादी यह मानते हैं कि क्रमश: 17 शुद्धिकरण प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद पारे में रूपान्तरण ( स्वर्ण या रजत के रूप में ) की सभी शक्तियों का परीक्षण करना चाहिए । यदि परीक्षण में ठीक निकले । तो उसको  18वीं शुद्धिकरण की प्रक्रिया में लगाना चाहिए । इसके द्वारा पारे में काया कल्प की योग्यता आ जाती है ।
नागार्जुन कहते हैं -
क्रमेण कृत्वाम्बुधरेण रंजित: । करोति शुल्वं त्रिपुटेन काञ्चनम । 
सुवर्ण रजतं ताम्रं तीक्ष्णवंग भुजङ्गमा:। लोहकं षडि्वधं तच्च यथापूर्व तदक्षयम । रस रत्नाकार  3-7-89-10 
अर्थात - धातुओं के अक्षय रहने का क्रम निम्न प्रकार से है - सुवर्ण, चांदी, ताम्र, वंग, सीसा, तथा लोहा । इसमें सोना सबसे ज्यादा अक्षय है ।
नागार्जुन के रस रत्नाकर में अयस्क सिनाबार से पारद को प्राप्त करने की आसवन ( डिस्टीलेशन ) विधि । रजत के धातु कर्म का वर्णन । तथा वनस्पतियों से कई प्रकार के अम्ल और क्षार की प्राप्ति की भी विधियां वर्णित हैं ।
इसके अतिरिक्त रस रत्नाकर में रस ( पारे के योगिक ) बनाने के प्रयोग दिए गये हैं । इसमें देश में धातु कर्म और कीमियागरी के स्तर का सर्वेक्षण भी दिया गया था । इस पुस्तक में चांदी, सोना, टिन और तांबे की कच्ची धातु निकालने । और उसे शुद्ध करने के तरीके भी बताये गए हैं ।

पारे से संजीवनी और अन्य पदार्थ बनाने के लिए नागार्जुन ने पशुओं और वनस्पति तत्वों और अम्ल और खनिजों का भी इस्तेमाल किया । हीरे, धातु और मोती घोलने के लिए उन्होंने वनस्पति से बने तेजाबों का सुझाव दिया । उसमें खट्टा दलिया, पौधे और फलों के रस से तेजाब Acid  बनाने का वर्णन है ।
नागार्जुन ने सुश्रुत संहिता के पूरक के रूप में उत्तर तन्त्र नामक पुस्तक भी लिखी । इसमें दवाइयां बनाने के तरीके दिये गये हैं । आयुर्वेद की 1 पुस्तक " आरोग्यमजरी " भी लिखीनालंदा यूनिवर्सिटी को जिस समय बख्तियार खिलजी द्वारा जलाकर बर्बाद किया जा रहा था। ठीक उससे कुछ दिनों पहले तत्कालीन वीसी नागार्जुन की रस रत्नाकर बुक लिखी जा चुकी थी। इस बुक की खासियत थी कि यह आयुर्वेद के ऊपर रस शास्त्र की कई रिसर्च को अपने में समेटे हुए थी। नालंदा यूनिवर्सिटी की हजारों पुस्तकें तो जल गयी लेकिन रस रत्नाकर बच गया। और वो आज भी मौजूद है। नागार्जुन के रस रत्नाकर को संस्कृत भाषा में साढ़े तीन सौ साल पहले अनुवाद किया गया था। जो दुर्लभ पांडुलिपि के रूप में आज भी पटना में मौजूद है। दुर्लभ पांडुलिपि का कलेक्शन करने वाली पूनम पांडेय ने बताया कि यह अपने आप में ऐतिहासिक है। और पांडुलिपि के जानकार और उसके संरक्षण के लिए काम कर रहे गवर्मेंट एजेंसी ने भी इसे काफी दुर्लभ माना है। हजारों पेज की लिखी रस रत्नाकर में नालंदा से जुड़ी कई चीजों का भी उल्लेख है। ज्ञात हो कि एक बार फिर से नालंदा यूनिवर्सिटी शुरू हो गया है। और इसमें पहले सेशन में पंद्रह स्टूडेंट्स ने एडमिशन भी ले लिया है। ऐसे में नागार्जुन की रस रत्नाकर नालंदा और उससे जुड़े इतिहास को जानने और समझने में काफी मददगार साबित होगा। क्भ्ख् पेज के इस रस रत्नाकर में रसायनशास्त्र की कई जानकारी मौजूद है। यह बुक व‌र्ल्ड की सबसे बड़ी लाइब्रेरी में रहने का भी सौभाग्य पाने वाली बुक में से एक है।
नागार्जुन के बाद अम‌र्त्य सेन