Saturday 28 October 2017

दिव्यास्त्रों की प्राप्ति - महाभारत


 एक बार वीरवर अर्जुन उत्तराखंड के पर्वतों को पार करते हुये एक अपूर्व सुन्दर वन में जा पहुँचे। वहाँ के शान्त वातावरण में वे भगवान की शंकर की तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या की परीक्षा लेने के लिये भगवान शंकर एक भील का वेष धारण कर उस वन में आये। वहाँ पर आने पर भील रूपी शिव जी ने देखा कि एक दैत्य शूकर का रूप धारण कर तपस्यारत अर्जुन की घात में है। शिव जी ने उस दैत्य पर अपना बाण छोड़ दिया। जिस समय शंकर भगवान ने दैत्य को देखकर बाण छोड़ा उसी समय अर्जुन की तपस्या टूटी और दैत्य पर उनकी दृष्टि पड़ी। उन्होंने भी अपना गाण्डीव धनुष उठा कर उस पर बाण छोड़ दिया। शूकर को दोनों बाण एक साथ लगे और उसके प्राण निकल गये। शूकर के मर जाने पर भीलरूपी शिव जी और अर्जुन दोनों ही शूकर को अपने बाण से मरा होने का दावा करने लगे। दोनों के मध्य विवाद बढ़ता गया और विवाद ने युद्ध का रूप धारण कर लिया। अर्जुन निरन्तर भील पर गाण्डीव से बाणों की वर्षा करते रहे किन्तु उनके बाण भील के शरीर से टकरा-टकरा कर टूटते रहे और भील शान्त खड़े हुये मुस्कुराता रहा। अन्त में उनकी तरकश के सारे बाण समाप्त हो गये। इस पर अर्जुन ने भील पर अपनी तलवार से आक्रमण कर दिया। अर्जुन की तलवार भी भील के शरीर से टकरा कर दो टुकड़े हो गई। अब अर्जुन क्रोधित होकर भील से मल्ल युद्ध करने लगे। मल्ल युद्ध में भी अर्जुन भील के प्रहार से मूर्छित हो गये। थोड़ी देर पश्चात् जब अर्जुन की मूर्छा टूटी तो उन्होंने देखा कि भील अब भी वहीं खड़े मुस्कुरा रहा है। भील की शक्ति देख कर अर्जुन को अत्यन्त आश्चर्य हुआ और उन्होंने भील को मारने की शक्ति प्राप्त करने के लिये शिव मूर्ति पर पुष्पमाला डाली, किन्तु अर्जुन ने देखा कि वह माला शिव मूर्ति पर पड़ने के स्थान पर भील के कण्ठ में चली गई। इससे अर्जुन समझ गये कि भगवान शंकर ही भील का रूप धारण करके वहाँ उपस्थित हुये हैं। अर्जुन शंकर जी के चरणों में गिर पड़े। भगवान शंकर ने अपना असली रूप धारण कर लिया और अर्जुन से कहा, हे अर्जुन मैं तुम्हारी तपस्या और पराक्रम से अति प्रसन्न हूँ और तुम्हें पशुपत्यास्त्र प्रदान करता हूँ। भगवान शंकर अर्जुन को पशुपत्यास्त्र प्रदान कर अन्तर्ध्यान हो गये। उसके पश्चात् वहाँ पर वरुण, यम, कुबेर, गन्धर्व और इन्द्र अपने-अपने वाहनों पर सवार हो कर आ गये। अर्जुन ने सभी देवताओं की विधिवत पूजा की। यह देख कर यमराज ने कहा, अर्जुन तुम नर के अवतार हो तथा श्री कृष्ण नारायण के अवतार हैं। तुम दोनों मिल कर अब पृथ्वी का भार हल्का करो। इस प्रकार सभी देवताओं ने अर्जुन को आशीर्वाद और विभिन्न प्रकार के दिव्य एवं अलौकिक अस्त्र-शस्त्र प्रदान कर अपने-अपने लोकों को चले गये।

 अर्जुन को उर्वशी का शाप अर्जुन के पास से अपने लोक को वापस जाते समय देवराज इन्द्र ने कहा, हे अर्जुन अभी तुम्हें देवताओं के अनेक कार्य सम्पन्न करने हैं, अतः तुमको लेने के लिये मेरा सारथि आयेगा। इसलिये अर्जुन उसी वन में रह कर प्रतीक्षा करने लगे। कुछ काल पश्चात् उन्हें लेने के लिये इन्द्र के सारथि मातलि वहाँ पहुँचे और अर्जुन को विमान में बिठाकर देवराज की नगरी अमरावती ले गये। इन्द्र के पास पहुँच कर अर्जुन ने उन्हें प्रणाम किया। देवराज इन्द्र ने अर्जुन को आशीर्वाद देकर अपने निकट आसन प्रदान किया। अमरावती में रहकर अर्जुन ने देवताओं से प्राप्त हुये दिव्य और अलौकिक अस्त्र-शस्त्रों की प्रयोग विधि सीखा और उन अस्त्र-शस्त्रों को चलाने का अभ्यास करके उन पर महारत प्राप्त कर लिया। फिर एक दिन इन्द्र अर्जुन से बोले, वत्स तुम चित्रसेन नामक गन्धर्व से संगीत और नृत्य की कला सीख लो। चित्रसेन ने इन्द्र का आदेश पाकर अर्जुन को संगीत और नृत्य की कला में निपुण कर दिया। एक दिन जब चित्रसेन अर्जुन को संगीत और नृत्य की शिक्षा दे रहे थे, वहाँ पर इन्द्र की अप्सरा उर्वशी आई और अर्जुन पर मोहित हो गई। अवसर पाकर उर्वशी ने अर्जुन से कहा, हे अर्जुन आपको देखकर मेरी प्रणय जागृत हो गई है, अतः आप कृपया मेरे साथ विहार करके मेरी प्रणय को शांत करें। उर्वशी के वचन सुनकर अर्जुन बोले, हे देवि हमारे पूर्वज ने आपसे विवाह करके हमारे वंश का गौरव बढ़ाया था अतः पुरु वंश की जननी होने के नाते आप हमारी माता के तुल्य हैं। देवि मैं आपको प्रणाम करता हूँ। अर्जुन की बातों से उर्वशी के मन में बड़ा क्षोभ उत्पन्न हुआ और उसने अर्जुन से कहा, तुमने नपुंसकों जैसे वचन कहे हैं, अतः मैं तुम्हें शाप देती हूँ कि तुम एक वर्ष तक पुंसत्वहीन रहोगे। इतना कहकर उर्वशी वहाँ से चली गई। जब इन्द्र को इस घटना के विषय में ज्ञात हुआ तो वे अर्जुन से बोले, वत्स तुमने जो व्यवहार किया है, वह तुम्हारे योग्य ही था। उर्वशी का यह शाप भी भगवान की इच्छा थी, यह शाप तुम्हारे अज्ञातवास के समय काम आयेगा। अपने एक वर्ष के अज्ञातवास के समय ही तुम पुंसत्वहीन रहोगे और अज्ञातवास पूर्ण होने पर तुम्हें पुनः पुंसत्व की प्राप्ति हो जायेगी।
   





~  दिव्यास्त्रों की प्राप्ति  - महाभारत 

पाण्डवों की तीर्थयात्रा - महाभारत


 दुःखी होकर उन्हीं के विषय में बातें कर रहे थे कि वहाँ पर लोमश ऋषि पधारे। धर्मराज युधिष्ठिर ने उनका यथोचित आदर-सत्कार करके उच्चासन प्रदान किया। लोमश ऋषि बोले, “हे पाण्डवगण आप लोग अर्जुन की चिन्ता छोड़ दीजिये। मैं अभी देवराज इन्द्र की नगरी अमरावती से आ रहा हूँ। अर्जुन वहाँ पर सुखपूर्वक निवास कर रहे हैं। उन्होंने भगवान शिव एवं अन्य देवताओं की कृपा से दिव्य तथा अलौकिक अस्त्र-शस्त्र तथा चित्रसेन से नृत्य-संगीत कला की शिक्षा भी प्राप्त कर लिया है। वे अब निवात और कवच नामक असुरों का वध करके ही यहाँ आयेंगे। देवराज इन्द्र ने आपके लिये यह संदेश भेजा है कि आप पाण्डवगण अब तीर्थयात्रा करके अपने आत्मबल में वृद्धि करें। देवराज इन्द्र के दिये गये संदेश के अनुसार युधिष्ठिर अपने भाइयों, पुरोहित धौम्य, लोमश ऋषि आदि को साथ ले कर तीर्थयात्रा के लिये चल पड़े। वे लोग नैमिषारण्य, कन्या-तीर्थ, अश्व-तीर्थ, गौ-तीर्थ आदि में दर्शन-स्नानादि करते हुये अगस्त्य ऋषि के आश्रम आ पहुँचे। लोमश ऋषि ने उस आश्रम की प्रशंसा करते हुये बताया, “हे धर्मराज यह अगस्त्य मुनि एवं उनकी धर्मात्मा पत्नी लोपामुद्रा की पवित्र तपस्थली है। एक बार अगस्त्य मुनि यहाँ घूमते हुये पहुँचे तो उन्होंने एक गड्ढे में अपने पूर्वजों को उल्टे लटकते देखा।

अगस्त्य मुनि के द्वारा उनके इस प्रकार से लटकने का कारण पूछने पर पूर्वजों ने बताया कि हे पुत्र तुम्हारे निःसंतान होने के कारण हमें यह नरक कुण्ड मिला है। इसलिये शीघ्र अपना विवाह कर पुत्र उत्पन्न करो, जिससे हमारा उद्धार हो। पितृगणों की बात से दुःखी होकर अगस्त्य एक सुयोग्य पत्नी की खोज में निकले और विदर्भ देश की राजकुमारी लोपामुद्रा से विवाह कर लिया। जब अगस्त्य मुनि ने लोपामुद्रा के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर पुत्रोत्पत्ति की अभिलाषा से उसे अपने पास आने के लिये कहा तो लोपामुद्रा बोली कि हे स्वामी मैं राजकुमारी हूँ इसलिये आपका मेरे साथ समागम भी राजोचित ढंग से होना चाहिये। पहले आप धन की व्यवस्था कर के मेरे और स्वयं के लिये सुन्दर वस्त्र तथा स्वर्णाभूषण ले कर आइये। अपनी पत्नी की वाणी से प्रभावित होकर अगस्त्य मुनि धन माँगने के लिये राजा श्रुतर्वा, व्रघ्नश्व तथा इक्ष्वाकु वंशी त्रसदृस्यु के पास गये किन्तु सभी राजाओं का कोष खाली होने के कारण उन राजाओं क्षमाप्रार्थना करते हुये ने अगस्त्य मुनि को धन देने में असमर्थता प्रकट कर दिया। निराश होकर अगस्त्य मुनि इल्वल नामक दैत्य के पास पहुँचे। इल्वल दैत्य ने प्रसन्नता के सा उन्हें मुँहमाँगा धन प्रदान कर दिया। धन प्राप्त करके अगस्त्य मुनि ने अपनी पत्नी की इच्छापूर्ति की और दृढस्यु नामक पुत्र उत्पन्न किया। कालान्तर में यह तीर्थस्थान अगस्त्याश्रम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी तीर्थस्थान में स्नान करके परशुराम ने अपना तेज पुनः प्राप्त किया था। इसलिये हे युधिष्ठिर यहाँ स्नान करके आप दुर्योधन के द्वारा छीने गये अपने तेज को पुनः प्राप्त कीजिये।”
लोमश ऋषि के आदेशानुसार वहाँ स्नान-पूजा आदि करके युधिष्ठिर ने लोमश ऋषि से पूछा, “हे प्रभो कृपा करके यह बताइये कि परशुराम निस्तेज कैसे हुये थे?” लोमश ऋषि ने उत्तर दिया, “धर्मराज दशरथनन्दन श्री राम जब शिव जी के धनुष को तोड़कर सीता जी से विवाह कर अपने पिता, भाइयों, बारातीगण आदि के साथ अयोध्या लौट रहे थे तो एक बड़े जोरों की आँधी आई जिससे वृक्ष पृथ्वी पर गिरने लगे। तभी राजा दशरथ की दृष्टि भृगुकुल के परशुराम पर पड़ी। उनकी वेशभूषा बड़ी भयंकर थी। तेजस्वी मुख पर बड़ी बड़ी जटायें बिखरी हुई थीं नेत्रों में क्रोध की लालिमा थी। कन्धे पर कठोर फरसा और हाथों में धनुष बाण थे। ऋषियों ने आगे बढ़ कर उनका स्वागत किया और इस स्वागत को स्वीकार करके वे श्री रामचन्द्र से बोले़ “दशरथनन्दन राम हमें ज्ञात हुआ है कि तुम बड़े पराक्रमी हो और तुमने शिव जी के धनुष को तोड़ डाला है और उसे तोड़कर तुमने अपूर्व ख्याति प्राप्त की है। मैं तुम्हारे लिये एक अच्छा धनुष लाया हूँ। यह धनुष साधारण नहीं है, जमदग्निकुमार परशुराम का है। इस पर बाण चढ़ाकर तुम अपने शौर्य का परिचय दो। तुम्हारे बल और शौर्य को देखकर मैं तुमसे द्वन्द्व युद्ध करूँगा। परशुराम की बात सुनकर राजा दशरथ विनीत स्वर मे बोले, “भगवन् आप वेदविद् स्वाध्यायी ब्राह्मण हैं। क्षत्रियों का विनाश करके आप बहुत पहले ही अपने क्रोध का शमन कर चुके हैं। इसलिये हे ऋषिराज आप इन बालकों को अभय दान दीजिये।” किन्तु परशुराम जी ने दशरथ की अनुनय-विनय पर कोई ध्यान न देते हुये राम से कहा, “राम सम्भवतः तुम्हें ज्ञात नहीं होगा कि संसार में केवल दो ही धनुष सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। सारा संसार उनका सम्मान करता हैं विश्वकर्मा ने उन्हें स्वयं अपने हाथों से बनाया था। उनमें से पिनाक नामक एक धनुष को देवताओं ने भगवान शिव को दिया था। इसी धनुष से भगवान शिव ने त्रिपुरासुर का वध किया था। तुमने उसी धनुष को तोड़ डाला है। दूसरा दिव्य धनुष मेरे हाथ में है। इसे देवताओं ने भगवान विष्णु को दिया था। यह भी पिनाक की भाँति ही शक्तिशाली है। विष्णु ने भृगुवंशी ऋचीक मुनि को धरोहर के रूप में वह धनुष दे दिया। वंशानुवंश रूप से यह धनुष मुझे प्राप्त हुआ है। अब तुम एक क्षत्रिय के नाते इस धनुष को लेकर इस पर बाण चढ़ाओ और सफल होने पर मेरे साथ द्वन्द्व युद्ध करो। परशुराम के द्वारा बार-बार ललकारे जाने पर रामचन्द्र बोले, “हे भार्गव मैं ब्राह्मण समझकर आपके सामने विशेष बोल नहीं रहा हूँ।
 किन्तु आप मेरी इस विनशीलता को पराक्रमहीनता एवं कायरता समझकर मेरा तिरस्कार कर रहे हैं। लाइये, धनुष बाण मुझे दीजिये।” यह कह कर उन्होंने झपटते हुये परशुराम के हाथ से धनुष बाण ले लिये। फिर धनुष पर बाण चढ़ाकर बोले, “हे भृगुनन्दन ब्राह्मण होने के कारण आप मेरे पूज्य हैं, इसलिये इस बाण को मैं आपके ऊपर नहीं छोड़ सकता। परन्तु धनुष पर चढ़ने के बाद यह बाण कभी निष्फल नहीं जाता। इसका कहीं न कहीं उपयोग करना ही पड़ता है। इसलिये इस बाण के द्वारा आपकी सर्वत्र शीघ्रतापूर्वक आने-जाने की शक्ति को नष्ट किये देता हूँ।” श्री राम की यह बात सुनकर शक्तिहीन से हुये परशुराम जी विनयपूर्वक कहने लगे, “बाण छोड़ने से पूर्व मेरी एक बात सुन लीजिये। क्षत्रियों को नष्ट करके जब मैंने यह भूमि कश्यप जी को दान में दी थी तो उन्होंने मुझसे कहा था कि अब तुम्हें पृथ्वी पर नहीं रहना चाहिये क्योंकि तुमने पृथ्वी का दान कर दिया है। तभी से गुरुवर कश्यप जी की आज्ञा का पालन करता हुआ मैं कभी रात्रि में पृथ्वी पर निवास नहीं करता। अतः हे राम कृपा करके मेरी गमन शक्ति को नष्ट मत करो। मैं मन के समान गति से महेन्द्र पर्वत पर चला जाउँगा। चूँकि इस बाण का प्रयोग निष्फल नहीं जाता, इसलिये आप उन अनुपम लोकों को नष्ट कर दें जिन पर मेँने अपनी तपस्या से विजय प्राप्त की है। आपने जिस सरलता से इस धनुष पर बाण चढ़ा दिया है, उससे मुझे विश्वास हो गया है कि आप मधु राक्षस का वध करने वाले साक्षत विष्णु हैं।” परशुराम की प्रार्थना को स्वीकार करके राम ने बाण छोड़कर उनके द्वारा तपस्या के बल पर अर्जित किये गये समस्त पुण्यलोकों को नष्ट कर दिया और इससे परशुराम जी निस्तेज हो गये। फिर परशुराम जी तपस्या करने के लिये महेन्द्र पर्वत पर चले गये। वहाँ उपस्थित सभी ऋषि-मुनियों सहित राजा दशरथ ने रामचन्द्र की भूरि भूरि प्रशंसा की।
 





~ पाण्डवों की तीर्थयात्रा  - महाभारत 

लाक्षाग्रह षड्यंत्र - महाभारत कथा


 दैवयोग तथा शकुनि के छल कपट से कौरवों और पाण्डवों में वैर की आग प्रज्वलित हो उठी। दुर्योधन बड़ी खोटी बुद्धि का मनुष्य था। उसने शकुनि के कहने पर पाण्ड्वो को बचपन मे कई बार मारने का प्रयत्न किया ।युवावस्था मे आकर जब गुणो मे उससे अधिक श्रेष्ठ युधिष्ठर को युवराज बना दिया गया तो शकुनि ने लाक्ष के बने हुए धर में पाण्डवों को रखकर आग लगाकर उन्हें जलाने का प्रयत्न किया किन्तु विदुर की सहायता से पाँचों पाण्डव अपनी माता के साथ उस जलते हुए घर से बाहर निकल गये।अपने उत्तम गुणों के कारण युधिष्ठिर हस्तिनापुर के प्रजाजनों में अत्यन्त लोकप्रिय हो गये। उनके गुणों तथा लोकप्रियता को देखते हुये भीष्म पितामह ने धृतराष्ट्र से युधिष्ठिर के राज्याभिषेक कर देने के लिये कहा। दुर्योधन नहीं चाहता था कि युधिष्ठिर राजा बने अतः उसने अपने पिता धृतराष्ट्र से कहा, “पिताजी यदि एक बार युधिष्ठिर को राजसिंहासन प्राप्त हो गया तो यह राज्य सदा के लिये पाण्डवों के वंश का हो जायेगा और हम कौरवों को उनका सेवक बन कर रहना पड़ेगा।” इस पर धृतराष्ट्र बोले, “वत्स दुर्योधन युधिष्ठिर हमारे कुल के सन्तानों में सबसे बड़ा है इसलिये इस राज्य पर उसी का अधिकार है। फिर भीष्म तथा प्रजाजन भी उसी को राजा बनाना चाहते हैं। हम इस विषय में कुछ भी नहीं कर सकते।” धृतराष्ट्र के वचनों को सुन कर दुर्योधन ने कहा, “पिताजी मैंने इसका प्रबन्ध कर लिया है। बस आप किसी तरह पाण्डवों को वारणावत भेज दें।” दुर्योधन ने वारणावत में पाण्डवों के निवास के लिये पुरोचन नामक शिल्पी से एक भवन का निर्माण करवाया था जो कि लाख, चर्बी, सूखी घास, मूंज जैसे अत्यन्त ज्वलनशील पदार्थों से बना था। दुर्योधन ने पाण्डवों को उस भवन में जला डालने का षड़यन्त्र रचा था। धृतराष्ट्र के कहने पर युधिष्ठिर अपनी माता तथा भाइयों के साथ वारणावत जाने के लिये निकल पड़े।
 दुर्योधन के षड़यन्त्र के विषय में विदुर को पता चल गया।

 अतः वे वारणावत जाते हुये पाण्डवों से मार्ग मे मिले तथा उनसे बोले, “देखो, दुर्योधन ने तुम लोगों के रहने के लिये वारणावत नगर में एक ज्वलनशील पदार्थों एक भवन बनवाया है जो आग लगते ही भड़क उठेगा। इसलिये तुम लोग भवन के अन्दर से वन तक पहुँचने के लिये एक सुरंग अवश्य बनवा लेना जिससे कि आग लगने पर तुम लोग अपनी रक्षा कर सको। मैं सुरंग बनाने वाला कारीगर चुपके से तुम लोगों के पास भेज दूँगा। तुम लोग उस लाक्षागृह में अत्यन्त सावधानी के साथ रहना।” वारणावत में युधिष्ठिर ने अपने चाचा विदुर के भेजे गये कारीगर की सहायता से गुप्त सुरंग बनवा लिया। पाण्डव नित्य आखेट के लिये वन जाने के बहाने अपने छिपने के लिये स्थान की खोज करने लगे। कुछ दिन इसी तरह बिताने के बाद एक दिन यधिष्ठिर ने भीमसेन से कहा, “भीम अब दुष्ट पुरोचन को इसी लाक्षागृह में जला कर हमें भाग निकलना चाहिये।” भीम ने उसी रात्रि पुरोचन को किसी बहाने बुलवाया और उसे उस भवन के एक कक्ष में बन्दी बना दिया। उसके पश्चात् भवन में आग लगा दिया और अपनी माता कुन्ती एवं भाइयों के साथ सुरंग के रास्ते वन में भाग निकले। लाक्षागृह के भस्म होने का समाचार जब हस्तिनापुर पहुँचा तो पाण्डवों को मरा समझ कर वहाँ की प्रजा अत्यन्त दुःखी हुई। दुर्योधन और धृतराष्ट्र सहित सभी कौरवों ने भी शोक मनाने का दिखावा किया और अन्त में उन्होंने पाण्डवों की अन्त्येष्टि करवा दी।
   





~  लाक्षाग्रह षड्यंत्र  - महाभारत कथा


धृतराष्ट्र,पाण्डु तथा विदुर - महाभारत


 सत्यवती के चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र हुये। शान्तनु का स्वर्गवास चित्रांगद और विचित्रवीर्य के बाल्यकाल में ही हो गया था इसलिये उनका पालन पोषण भीष्म ने किया। भीष्म ने चित्रांगद के बड़े होने पर उन्हें राजगद्दी पर बिठा दिया लेकिन कुछ ही काल में गन्धर्वों से युद्ध करते हुये चित्रांगद मारा गया। इस पर भीष्म ने उनके अनुज विचित्रवीर्य को राज्य सौंप दिया। अब भीष्म को विचित्रवीर्य के विवाह की चिन्ता हुई। उन्हीं दिनों काशीराज की तीन कन्याओं, अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का स्वयंवर होने वाला था। उनके स्वयंवर में जाकर अकेले ही भीष्म ने वहाँ आये समस्त राजाओं को परास्त कर दिया और तीनों कन्याओं का हरण कर के हस्तिनापुर ले आये। बड़ी कन्या अम्बा ने भीष्म को बताया कि वह अपना तन-मन राजा शाल्व को अर्पित कर चुकी है। उसकी बात सुन कर भीष्म ने उसे राजा शाल्व के पास भिजवा दिया और अम्बिका और अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ करवा दिया।
 राजा शाल्व ने अम्बा को ग्रहण नहीं किया अतः वह हस्तिनापुर लौट कर आ गई और भीष्म से बोली, हे आर्य आप मुझे हर कर लाये हैं अतएव आप मुझसे विवाह करें। किन्तु भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा के कारण उसके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया। अम्बा रुष्ट हो कर परशुराम के पास गई और उनसे अपनी व्यथा सुना कर सहायता माँगी। परशुराम ने अम्बा से कहा, हे देवि आप चिन्ता न करें, मैं आपका विवाह भीष्म के साथ करवाउँगा। परशुराम ने भीष्म को बुलावा भेजा किन्तु भीष्म उनके पास नहीं गये। इस पर क्रोधित होकर परशुराम भीष्म के पास पहुँचे और दोनों वीरों में भयानक युद्ध छिड़ गया। दोनों ही अभूतपूर्व योद्धा थे इसलिये हार-जीत का फैसला नहीं हो सका। आखिर देवताओं ने हस्तक्षेप कर के इस युद्ध को बन्द करवा दिया। अम्बा निराश हो कर वन में तपस्या करने चली गई।
 विचित्रवीर्य अपनी दोनों रानियों के साथ भोग विलास में रत हो गये किन्तु दोनों ही रानियों से उनकी कोई सन्तान नहीं हुई और वे क्षय रोग से पीड़ित हो कर मृत्यु को प्राप्त हो गये।

अब कुल नाश होने के भय से माता सत्यवती ने एक दिन भीष्म से कहा, पुत्र इस वंश को नष्ट होने से बचाने के लिये मेरी आज्ञा है कि तुम इन दोनों रानियों से पुत्र उत्पन्न करो। माता की बात सुन कर भीष्म ने कहा, माता मैं अपनी प्रतिज्ञा किसी भी स्थिति में भंग नहीं कर सकता।
यह सुन कर माता सत्यवती को अत्यन्त दुःख हुआ। अचानक उन्हें अपने पुत्र वेदव्यास का स्मरण हो आया। स्मरण करते ही वेदव्यास वहाँ उपस्थित हो गये। सत्यवती उन्हें देख कर बोलीं, हे पुत्र तुम्हारे सभी भाई निःसन्तान ही स्वर्गवासी हो गये। अतः मेरे वंश को नाश होने से बचाने के लिये मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि तुम उनकी पत्नियों से सन्तान उत्पन्न करो। वेदव्यास उनकी आज्ञा मान कर बोले, माता आप उन दोनों रानियों से कह दीजिये कि वे एक वर्ष तक नियम-व्रत का पालन करते रहें तभी उनको गर्भ धारण होगा। एक वर्ष व्यतीत हो जाने पर वेदव्यास सबसे पहले बड़ी रानी अम्बिका के पास गये। अम्बिका ने उनके तेज से डर कर अपने नेत्र बन्द कर लिये। वेदव्यास लौट कर माता से बोले, माता अम्बिका का बड़ा तेजस्वी पुत्र होगा किन्तु नेत्र बन्द करने के दोष के कारण वह अंधा होगा। सत्यवती को यह सुन कर अत्यन्त दुःख हुआ और उन्हों ने वेदव्यास को छोटी रानी अम्बालिका के पास भेजा।

 अम्बालिका वेदव्यास को देख कर भय से पीली पड़ गई। उसके कक्ष से लौटने पर वेदव्यास ने सत्यवती से कहा, माता अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पुत्र होगा। इससे माता सत्यवती को और भी दुःख हुआ और उन्होंने बड़ी रानी अम्बालिका को पुनः वेदव्यास के पास जाने का आदेश दिया। इस बार बड़ी रानी ने स्वयं न जा कर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया। दासी ने आनन्दपूर्वक वेदव्यास से भोग कराया। इस बार वेदव्यास ने माता सत्यवती के पास आ कर कहा, माते इस दासी के गर्भ से वेद-वेदान्त में पारंगत अत्यन्त नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा। इतना कह कर वेदव्यास तपस्या करने चले गये।
 समय आने पर अम्बिका के गर्भ से जन्मांध धृतराष्ट्र, अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पाण्डु तथा दासी के गर्भ से धर्मात्मा विदुर का जन्म हुआ।
 





~  धृतराष्ट्र,पाण्डु तथा विदुर  - महाभारत 

कृपाचार्य तथा द्रोणाचार्य - महाभारत कथा


गौतम ऋषि के पुत्र का नाम शरद्वान था। उनका जन्म बाणों के साथ हुआ था। उन्हें वेदाभ्यास में जरा भी रुचि नहीं थी और धनुर्विद्या से उन्हें अत्यधिक लगाव था। वे धनुर्विद्या में इतने निपुण हो गये कि देवराज इन्द्र उनसे भयभीत रहने लगे।
 इन्द्र ने उन्हें साधना से डिगाने के लिये नामपदी नामक एक देवकन्या को उनके पास भेज दिया। उस देवकन्या के सौन्दर्य के प्रभाव से कृप नामक बालक उत्पन्न हुआ और दूसरे भाग से कृपी नामक कन्या उत्पन्न हुई।
 कृप भी धनुर्विद्या में अपने पिता के समान ही पारंगत हुये। भीष्म जी ने इन्हीं कृप को पाण्डवों और कौरवों की शिक्षा-दीक्षा के लिये नियुक्त किया और वे कृपाचार्य के नाम से विख्यात हुये।
 कृपाचार्य के द्वारा पाण्डवों तथा कौरवों की प्रारंभिक शिक्षा समाप्त होने के पश्चात् अस्त्र-शस्त्रों की विशेष शिक्षा के लिये भीष्म जी ने द्रोण नामक आचार्य को नियुक्त किया। द्रोण के साथ प्रषत् नामक राजा के पुत्र द्रुपद भी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तथा दोनों में प्रगाढ़ मैत्री हो गई।

 उन्हीं दिनों परशुराम अपनी समस्त सम्पत्ति को ब्राह्मणों में दान कर के महेन्द्राचल पर्वत पर तप कर रहे थे। एक बार द्रोण उनके पास पहुँचे और उनसे दान देने का अनुरोध किया। इस पर परशुराम बोले, वत्स तुम विलम्ब से आये हो, मैंने तो अपना सब कुछ पहले से ही ब्राह्मणों को दान में दे डाला है। अब मेरे पास केवल अस्त्र-शस्त्र ही शेष बचे हैं। तुम चाहो तो उन्हें दान में ले सकते हो। द्रोण यही तो चाहते थे अतः उन्होंने कहा, हे गुरुदेव आपके अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर के मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी, किन्तु आप को मुझे इन अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा-दीक्षा देनी होगी तथा विधि-विधान भी बताना होगा। इस प्रकार परशुराम के शिष्य बन कर द्रोण अस्त्र-शस्त्रादि सहित समस्त विद्याओं के अभूतपूर्व ज्ञाता हो गये।
 शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात द्रोण का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी के साथ हो गया। कृपी से उनका एक पुत्र हुआ। उनके उस पुत्र के मुख से जन्म के समय अश्व की ध्वनि निकली इसलिये उसका नाम अश्वत्थामा रखा गया। किसी प्रकार का राजाश्रय प्राप्त न होने के कारण द्रोण अपनी पत्नी कृपी तथा पुत्र अश्वत्थामा के साथ निर्धनता के साथ रह रहे थे। एक दिन उनका पुत्र अश्वत्थामा दूध पीने के लिये मचल उठा किन्तु अपनी निर्धनता के कारण द्रोण पुत्र के लिये गाय के दूध की व्यवस्था न कर सके। अकस्मात् उन्हें अपने बाल्यकाल के मित्र राजा द्रुपद का स्मरण हो आया जो कि पाञ्चाल देश के नरेश बन चुके थे। द्रोण ने द्रुपद के पास जाकर कहा, मित्र मैं तुम्हारा सहपाठी रह चुका हूँ। मुझे दूध के लिये एक गाय की आवश्यकता है और तुमसे सहायता प्राप्त करने की अभिलाषा ले कर मैं तुम्हारे पास आया हूँ।

 इस पर द्रुपद अपनी पुरानी मित्रता को भूलकर तथा स्वयं के नरेश होने के अहंकार के वश में आकर द्रोण पर बिगड़ उठे और कहा, तुम्हें मुझको अपना मित्र बताते हुये लज्जा नहीं आती? मित्रता केवल समान वर्ग के लोगों में होती है, तुम जैसे निर्धन और मुझ जैसे राजा में नहीं।
 अपमानित होकर द्रोण वहाँ से लौट आये और कृपाचार्य के घर गुप्त रूप से रहने लगे। एक दिन युधिष्ठिर आदि राजकुमार जब गेंद खेल रहे थे तो उनकी गेंद एक कुएँ में जा गिरी। उधर से गुजरते हुये द्रोण से राजकुमारों ने गेंद को कुएँ से निकालने लिये सहायता माँगी। द्रोण ने कहा, यदि तुम लोग मेरे तथा मेरे परिवार के लिये भोजन का प्रबन्ध करो तो मैं तुम्हारा गेंद निकाल दूँगा।
 युधिष्ठिर बोले, देव यदि हमारे पितामह की अनुमति होगी तो आप सदा के लिये भोजन पा सकेंगे। द्रोणाचार्य ने तत्काल एक मुट्ठी सींक लेकर उसे मन्त्र से अभिमन्त्रित किया और एक सींक से गेंद को छेदा। फिर दूसरे सींक से गेंद में फँसे सींक को छेदा। इस प्रकार सींक से सींक को छेदते हुये गेंद को कुएँ से निकाल दिया।
 इस अद्भुत प्रयोग के विषय में तथा द्रोण के समस्त विषयों मे प्रकाण्ड पण्डित होने के विषय में ज्ञात होने पर भीष्म पितामह ने उन्हें राजकुमारों के उच्च शिक्षा के नियुक्त कर राजाश्रय में ले लिया और वे द्रोणाचार्य के नाम से विख्यात हुये।
   





~   कृपाचार्य तथा द्रोणाचार्य  - महाभारत कथा


कुरुवंश की उत्पत्ति - महाभारत



पुराणो के अनुसार ब्रह्मा जी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध, और बुध से इलानन्दन पुरूरवा का जन्म हुआ। पुरूरवा से आयु, आयु से राजा नहुष, और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए। ययाति से पुरू हुए। पूरू के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए।

 कुरु के वंश में शान्तनु का जन्म हुआ। शान्तनु से गंगानन्दन भीष्म उत्पन्न हुए। उनके दो छोटे भाई और थे – चित्रांगद और विचित्रवीर्य। ये शान्तनु से सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। शान्तनु के स्वर्गलोक चले जाने पर भीष्म ने अविवाहित रह कर अपने भाई विचित्रवीर्य के राज्य का पालन किया।भीष्म महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक हैं। ये महाराजा शांतनु के पुत्र थे। अपने पिता को दिये गये वचन के कारण इन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था। इन्हें इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था।

 एक बार हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट खेलने वन में गये। जिस वन में वे शिकार के लिये गये थे उसी वन में कण्व ऋषि का आश्रम था। कण्व ऋषि के दर्शन करने के लिये महाराज दुष्यंत उनके आश्रम पहुँच गये। पुकार लगाने पर एक अति लावण्यमयी कन्या ने आश्रम से निकल कर कहा, हे राजन् महर्षि तो तीर्थ यात्रा पर गये हैं, किन्तु आपका इस आश्रम में स्वागत है।
 उस कन्या को देख कर महाराज दुष्यंत ने पूछा, बालिके आप कौन हैं? बालिका ने कहा, मेरा नाम शकुन्तला है और मैं कण्व ऋषि की पुत्री हूँ। उस कन्या की बात सुन कर महाराज दुष्यंत आश्चर्यचकित होकर बोले, महर्षि तो आजन्म ब्रह्मचारी हैं फिर आप उनकी पुत्री कैसे हईं?
 उनके इस प्रश्न के उत्तर में शकुन्तला ने कहा, वास्तव में मेरे माता-पिता मेनका और विश्वामित्र हैं। मेरी माता ने मेरे जन्म होते ही मुझे वन में छोड़ दिया था जहाँ पर शकुन्त नामक पक्षी ने मेरी रक्षा की। इसी लिये मेरा नाम शकुन्तला पड़ा।
 उसके बाद कण्व ऋषि की दृष्टि मुझ पर पड़ी और वे मुझे अपने आश्रम में ले आये। उन्होंने ही मेरा भरन-पोषण किया। जन्म देने वाला, पोषण करने वाला तथा अन्न देने वाला – ये तीनों ही पिता कहे जाते हैं। इस प्रकार कण्व ऋषि मेरे पिता हुये।
 शकुन्तला के वचनों को सुनकर महाराज दुष्यंत ने कहा, शकुन्तले तुम क्षत्रिय कन्या हो। यदि तुम्हें किसी प्रकार की आपत्ति न हो तो मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ। शकुन्तला भी महाराज दुष्यंत पर मोहित हो चुकी थी, अतः उसने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। दोनों नें गन्धर्व विवाह कर लिया। कुछ काल महाराज दुष्यंत ने शकुन्तला के साथ विहार करते हुये वन में ही व्यतीत किया। फिर एक दिन वे शकुन्तला से बोले, प्रियतमे मुझे अब अपना राजकार्य देखने के लिये हस्तिनापुर प्रस्थान करना होगा। महर्षि कण्व के तीर्थ यात्रा से लौट आने पर मैं तुम्हें यहाँ से विदा करा कर अपने राजभवन में ले जाउँगा।

 इतना कहकर महाराज ने शकुन्तला को अपने प्रेम के प्रतीक के रूप में अपनी स्वर्ण मुद्रिका दी और हस्तिनापुर चले गये।

 एक दिन उसके आश्रम में दुर्वासा ऋषि पधारे। महाराज दुष्यंत के विरह में लीन होने के कारण शकुन्तला को उनके आगमन का ज्ञान भी नहीं हुआ और उसने दुर्वासा ऋषि का यथोचित स्वागत सत्कार नहीं किया। दुर्वासा ऋषि ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोधित हो कर बोले, बालिके मैं तुझे शाप देता हूँ कि जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जायेगा। दुर्वासा ऋषि के शाप को सुन कर शकुन्तला का ध्यान टूटा और वह उनके चरणों में गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगी। शकुन्तला के क्षमा प्रार्थना से द्रवित हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा, अच्छा यदि तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा तो उस चिन्ह को देख उसे तेरी स्मृति हो आयेगी।
 महाराज दुष्यंत से विवाह से शकुन्तला गर्भवती हो गई थी। कुछ काल पश्चात् कण्व ऋषि तीर्थ यात्रा से लौटे तब शकुन्तला ने उन्हें महाराज दुष्यंत के साथ अपने गन्धर्व विवाह के विषय में बताया। इस पर महर्षि कण्व ने कहा, पुत्री विवाहित कन्या का पिता के घर में रहना उचित नहीं है। अब तेरे पति का घर ही तेरा घर है। इतना कह कर महर्षि ने शकुन्तला को अपने शिष्यों के साथ हस्तिनापुर भिजवा दिया। मार्ग में एक सरोवर में आचमन करते समय महाराज दुष्यंत की दी हुई शकुन्तला की अँगूठी, जो कि प्रेम चिन्ह थी, सरोवर में ही गिर गई। उस अँगूठी को एक मछली निगल गई।
 महाराज दुष्यंत के पास पहुँच कर कण्व ऋषि के शिष्यों ने शकुन्तला को उनके सामने खड़ी कर के कहा, महाराज शकुन्तला आपकी पत्नी है, आप इसे स्वीकार करें। महाराज तो दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण शकुन्तला को विस्मृत कर चुके थे। अतः उन्होंने शकुन्तला को स्वीकार नहीं किया और उस पर कुलटा होने का लाँछन लगाने लगे। शकुन्तला का अपमान होते ही आकाश में जोरों की बिजली कड़क उठी और सब के सामने उसकी माता मेनका उसे उठा ले गई।
 जिस मछली ने शकुन्तला की अँगूठी को निगल लिया था, एक दिन वह एक मछुआरे के जाल में आ फँसी। जब मछुआरे ने उसे काटा तो उसके पेट अँगूठी निकली। मछुआरे ने उस अँगूठी को महाराज दुष्यंत के पास भेंट के रूप में भेज दिया। अँगूठी को देखते ही महाराज को शकुन्तला का स्मरण हो आया और वे अपने कृत्य पर पश्चाताप करने लगे। महाराज ने शकुन्तला को बहुत ढुँढवाया किन्तु उसका पता नहीं चला।
 कुछ दिनों के बाद देवराज इन्द्र के निमन्त्रण पाकर देवासुर संग्राम में उनकी सहायता करने के लिये महाराज दुष्यंत इन्द्र की नगरी अमरावती गये। संग्राम में विजय प्राप्त करने के पश्चात् जब वे आकाश मार्ग से हस्तिनापुर लौट रहे थे तो मार्ग में उन्हें कश्यप ऋषि का आश्रम दृष्टिगत हुआ। उनके दर्शनों के लिये वे वहाँ रुक गये। आश्रम में एक सुन्दर बालक एक भयंकर सिंह के साथ खेल रहा था। मेनका ने शकुन्तला को कश्यप ऋषि के पास लाकर छोड़ा था तथा वह बालक शकुन्तला का ही पुत्र था। उस बालक को देख कर महाराज के हृदय में प्रेम की भावना उमड़ पड़ी।
 वे उसे गोद में उठाने के लिये आगे बढ़े तो शकुन्तला की सखी चिल्ला उठी, हे भद्र पुरुष आप इस बालक को न छुयें अन्यथा उसकी भुजा में बँधा काला डोरा साँप बन कर आपको डस लेगा। यह सुन कर भी दुष्यंत स्वयं को न रोक सके और बालक को अपने गोद में उठा लिया। अब सखी ने आश्चर्य से देखा कि बालक के भुजा में बँधा काला गंडा पृथ्वी पर गिर गया है। सखी को ज्ञात था कि बालक को जब कभी भी उसका पिता अपने गोद में लेगा वह काला डोरा पृथ्वी पर गिर जायेगा। सखी ने प्रसन्न हो कर समस्त वृतान्त शकुन्तला को सुनाया। शकुन्तला महाराज दुष्यंत के पास आई। महाराज ने शकुन्तला को पहचान लिया। उन्होंने अपने कृत्य के लिये शकुन्तला से क्षमा प्रार्थना किया और कश्यप ऋषि की आज्ञा लेकर उसे अपने पुत्र सहित अपने साथ हस्तिनापुर ले आये। महाराज दुष्यंत और शकुन्तला के उस पुत्र का नाम भरत था।
 बाद में वे भरत महान प्रतापी सम्राट बने और उन्हीं के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष हुआ।

 





~ कुरुवंश की उत्पत्ति  - महाभारत 

Friday 27 October 2017

रावण के जन्म की कथा - 1 - पौराणिक कथा



जब श्रीराम अयोध्या में राज्य करने लगे तब एक दिन समस्त ऋषि-मुनि श्रीरघुनाथजी का अभिनन्दन करने के लिये अयोध्यापुरी में आये। श्रीरामचन्द्रजी ने उन सबका यथोचित सत्कार किया। वार्तालाप करते हुये अगस्त्य मुनि कहने लगे, "युद्ध में आपने जो रावण का संहार किया, वह कोई बड़ी बात नहीं है, परन्तु द्वन्द युद्ध में लक्ष्मण के द्वारा इन्द्रजित का वध सबसे अधिक आश्‍चर्य की बात है। यह मायावी राक्षस युद्ध में सब प्राणियों के लिये अवध्य था।" उनकी बात सुनकर रामचन्द्रजी को बड़ा आश्‍चर्य हुआ। वे बोले, "मुनिवर! रावण और कुम्भकर्ण भी तो महान पराक्रमी थे, फिर आप केवल इन्द्रजित मेघनाद की ही इतनी प्रशंसा क्यों करते हैं? महोदर, प्रहस्त, विरूपाक्ष भी कम वीर न थे।"
इस पर अगस्त्य मुनि बोले, "इस प्रश्‍न का उत्तर देने से पहले मैं तुम्हें रावण के जन्म, वर प्राप्ति आदि का विवरण सुनाता हूँ। ब्रह्मा जी के पुलस्त्य नामक पुत्र हुये थे जो उन्हीं के समान तेजस्वी और गुणवान थे। एक बार वे महगिरि पर तपस्या करने गये। वह स्थान अत्यन्त रमणीक था। इसलिये ऋषियों, नागों, राजर्षियों आदि की कन्याएँ वहाँ क्रीड़ा करने आ जाती थीं। इससे उनकी तपस्या में विघ्न पड़ता था। उन्होंने उन्हें वहाँ आने से मना किया। जब वे नहीं मानीं तो उन्होंने शाप दे दिया कि कल से जो लड़की यहाँ मुझे दिखाई देगी, वह गर्भवती हो जायेगी। शैष सब कन्याओं ने तो वहाँ आना बन्द कर दिया, परन्तु राजर्षि तृणबिन्दु की कन्या शाप की बात से अनजान होने के कारण उस आश्रम में आ गई और महर्षि के द‍ृष्टि पड़ते ही गर्भवती हो गई। जब तृणबिन्दु को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने अपने कन्या को पत्‍नी के रूप में महर्षि को अर्पित कर दिया। इस प्रकार विश्रवा का जन्म हुआ जो अपने पिता के समान वेद्‍‍विद और धर्मात्मा हुआ। महामुनि भरद्वाज ने अपनी कन्या का विवाह विश्रवा से कर दिया। उनके वैश्रवण नामक पुत्र हुआ। वह भी धर्मात्मा और विद्वान था। उसने भारी तपस्या करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और यम, इन्द्र तथा वरुण के सद‍ृश लोकपाल का पद पाया। फिर उसने त्रिकूट पर्वत पर बसी लंका को अपना निवास स्थान बनाया और राक्षसों पर राज्य करने लगा।"

श्रीराम ने आश्‍चर्य से पूछा, "तो क्या कुबेर और रावण से भी पहले लंका में माँसभक्षी राक्षस रहते थे? फिर उनका पूर्वज कौन था? यह सुनने के लिये मुझे कौतूहल हो रहा है?" तब अगस्त्य जी बोले, "पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने अनेक जल जन्तु बनाये और उनसे समुद्र के जल की रक्षा करने के लिये कहा। तब उन जन्तुओं में से कुछ बोले कि हम इसका रक्षण (रक्षा) करेंगे और कुछ ने कहा कि हम इसका यक्षण (पूजा) करेंगे। इस पर ब्रह्माजी ने कहा कि जो रक्षण करेगा वह राक्षस कहलायेगा और जो यक्षण करेगा वह यक्ष कहलायेगा। इस प्रकार वे दो जातियों में बँट गये। राक्षसों में हेति और प्रहेति दो भाई थे। प्रहेति तपस्या करने चला गया, परन्तु हेति ने भया से विवाह किया जिससे उसके विद्युत्केश नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। विद्युत्केश के सुकेश नामक पराक्रमी पुत्र हुआ। सुकेश के माल्यवान, सुमाली और माली नामक तीन पुत्र हुये। तीनों ने ब्रह्मा जी की तपस्या करके यह वरदान प्राप्त कर लिये कि हम लोगों का प्रेम अटूट हो और हमें कोई पराजित न कर सके। वर पाकर वे निर्भय हो गये और सुरों, असुरों को सताने लगे। उन्होंने विश्‍वकर्मा से एक अत्यन्त सुन्दर नगर बनाने के लिये कहा। इस पर विश्‍वकर्मा ने उन्हें लंकापुरी का पता बताकर भेज दिया। वहाँ वे बड़े आनन्द के साथ रहने लगे। माल्यवान के वज्रमुष्टि, विरूपाक्ष, दुर्मुख, सुप्तघ्न, यज्ञकोप, मत्त और उन्मत्त नामक सात पुत्र हुये। सुमाली के प्रहस्त्र, अकम्पन, विकट, कालिकामुख, धूम्राक्ष, दण्ड, सुपार्श्‍व, संह्नादि, प्रधस एवं भारकर्ण नाम के दस पुत्र हुये। माली के अनल, अनिल, हर और सम्पाती नामक चार पुत्र हुये। ये सब बलवान और दुष्ट प्रकृति होने के कारण ऋषि-मुनियों को कष्ट दिया करते थे। उनके कष्टों से दुःखी होकर ऋषि-मुनिगण जब भगवान विष्णु की शरण में गये तो उन्होंने आश्‍वासन दिया कि हे ऋषियों! मैं इन दुष्टों का अवश्य ही नाश करूँगा।

"जब राक्षसों को विष्णु के इस आश्‍वासन की सूचना मिली तो वे सब मन्त्रणा करके संगठित हो माली के सेनापतित्व में इन्द्रलोक पर आक्रमण करने के लिये चल पड़े। समाचार पाकर भगवान विष्णु ने अपने अस्त्र-शस्त्र संभाले और राक्षसों का संहार करने लगे। सेनापति माली सहित बहुत से राक्षस मारे गये और शेष लंका की ओर भाग गये। जब भागते हुये राक्षसों का भी नारायण संहार करने लगे तो माल्यवान क्रुद्ध होकर युद्धभूमि में लौट पड़ा। भगवान विष्णु के हाथों अन्त में वह भी काल का ग्रास बना। शेष बचे हुये राक्षस सुमाली के नेतृत्व में लंका को त्यागकर पाताल में जा बसे और लंका पर कुबेर का राज्य स्थापित हुआ। अब मैं तुम्हें रावण के जन्म की कथा सुनाता हूँ। राक्षसों के विनाश से दुःखी होकर सुमाली ने अपनी पुत्री कैकसी से कहा कि पुत्री! राक्षस वंश के कल्याण के लिये मैं चाहता हूँ कि तुम परम पराक्रमी महर्षि विश्रवा के पास जाकर उनसे पुत्र प्राप्त करो। वही पुत्र हम राक्षसों की देवताओं से रक्षा कर सकता है।"











~ रावण के जन्म की कथा - 1 - पौराणिक कथा

जब हनुमान से हारे शनि - पौराणिक कथा



शनि के नाम से ही हर व्यक्ति डरने लगता है। शनि की दशा एक बार शुरू हो जाए तो साढ़ेसात साल बाद ही पीछा छोड़ती है। लेकिन हनुमान भक्तों को शनि से डरने की तनिक भी जरूरत नहीं। शनि ने हनुमान को भी डराना चाहा लेकिन मुंह की खानी पड़ी आइए जानें कैसे...
महान पराक्रमी हनुमान अमर हैं। पवन पुत्र हनुमान रघुकुल के कुमारों के कहने से प्रतिदिन अपनी आत्मकथा का कोई भाग सुनाया करते थे।

उन्होंने कहा कि मैं एक बार संध्या समय अपने आराध्य श्री राम का स्मरण करने लगा तो उसी समय ग्रहों में पाप ग्रह, मंद गति सूर्य पुत्र शनि देव पधारे। वह अत्यंत कृष्ण वर्ण के भीषणाकार थे। वह अपना सिर प्रायः झुकाये रखते हैं। जिस पर अपनी दृष्टि डालते हैं वह अवश्य नष्ट हो जाता है। शनिदेव हनुमान के बाहुबल और पराक्रम को नहीं जानते थे। हनुमान ने उन्हें लंका में दशग्रीव के बंधन से मुक्त किया था। वह हनुमान जी से विनयपूर्वक किंतु कर्कश स्वर में बोले हनुमान जी ! मैं आपको सावधान करने आया हूं। त्रेता की बात दूसरी थी, अब कलियुग प्रारंभ हो गया है। भगवान वासुदेव ने जिस क्षण अपनी अवतार लीला का समापन किया उसी क्षण से पृथ्वी पर कलि का प्रभुत्व हो गया। यह कलियुग है। इस युग में आपका शरीर दुर्बल और मेरा बहुत बलिष्ठ हो गया है।

अब आप पर मेरी साढेसाती की दशा प्रभावी हो गई है। मैं आपके शरीर पर आ रहा हूं।

शनिदेव को इस बात का तनिक भी ज्ञान नहीं था कि रघुनाथ के चरणाश्रि्रतों पर काल का प्रभाव नहीं होता।  करुणा निधान जिनके हृदय में एक क्षण को भी आ जाते हैं, काल की कला वहां सर्वथा निष्प्रभावी  हो जाती है। प्रारब्ध के विधान वहां प्रभुत्वहीन हो जाते हैं। सर्व समर्थ पर ब्रह्म के सेवकों का नियंत्रण-संचालन-पोषण प्रभु ही करते हैं। उनके सेवकों की ओर दृष्टि उठाने का साहस कोई सुर-असुर करे तो स्वयं अनिष्ट भाजन होता है। शनिदेव के अग्रज यमराज भी प्रभु के भक्त की ओर देखने का साहस नहीं कर पाते।

हनुमान जी ने शनिदेव को समझाने का प्रयत्न किया, आप कहीं अन्यत्र जाएं। ग्रहों का प्रभाव पृथ्वी के मरणशील प्राणियों पर ही पड़ता है। मुझे अपने आराध्य का स्मरण करने दें। मेरे शरीर में श्री रघुनाथजी के अतिरिक्त दूसरे किसी को स्थान नहीं मिल सकता।

लेकिन शनिदेव को इससे संतोष नहीं मिला। वह बोले, मैं सृष्टिकर्ता के विधान से विवश हूं। आप पृथ्वी पर रहते हैं। अतः आप मेरे प्रभुत्व क्षेत्र से बाहर नहीं हैं। पूरे साढे बाईस वर्ष व्यतीत होने पर साढ़े सात वर्ष के अंतर से ढाई वर्ष के लिए मेरा प्रभाव प्राणी पर पड़ता है। किंतु यह गौण प्रभाव है। आप पर मेरी साढ़े साती आज इसी समय से प्रभावी हो रही हो। मैं आपके शरीर पर आ रहा हूं। इसे आप टाल नहीं सकते।

फिर हनुमान जी कहते हैं, जब आपको आना ही है तो आइए, अच्छा होता कि आप मुझ वृद्ध को छोड़ ही देते'

फिर शनिदेव कहते हैं, कलियुग में पृथ्वी पर देवता या उपदेवता किसी को नहीं रहना चाहिए। सबको अपना आवास सूक्ष्म लोकों में रखना चाहिए जो पृथ्वी पर रहेगा। वह कलियुग के प्रभाव में रहेगा और उसे मेरी पीड़ा भोगनी पड़ेगी और ग्रहों में मुझे अपने अग्रज यम का कार्य मिला है। मैं मुख्य मारक ग्रह हूं। और मृत्यु के सबसे निकट वृद्ध होते हैं। अतः मैं वृद्धों को कैसे छोड़ सकता हूं।'

हनुमान जी पूछते हैं, आप मेरे शरीर पर कहां बैठने आ रहे हैं। शनिदेव गर्व से कहते हैं प्राणी के सिर पर। मैं ढाई वर्ष प्राणी के सिर पर रहकर उसकी बुद्धि विचलित बनाए रखता हूं। मध्य के ढाई वर्ष उसके उदर में स्थित रहकर उसके शरीर को अस्वस्थ बनाता हूं व अंतिम ढाई वर्ष पैरों में रहकर उसे भटकाता हूं।'

फिर शनिदेव हनुमान जी के मस्तक पर आ बैठे तो हनुमान जी के सिर पर खाज हुई। इसे मिटाने के लिए हनुमान जी ने बड़ा पर्वत उठाकर सिर पर रख लिया।

शनिदेव चिल्लाते हैं, यह क्या कर रहे हैं आप।' फिर हनुमान जी कहते हैं, जैसे आप सृष्टिकर्ता के विधान से विवश हैं वैसे मैं भी अपने स्वभाव से विवश हूं। मेरे मस्तक पर खाज मिटाने की यही उपचार पद्धति है। और आप अपना कार्य करें और मैं अपना कार्य।'

ऐसा कहते ही हुनमान जी ने दूसरा पर्वत उठाकर सिर पर रख लिया। इस पर शनिदेव कहते हैं, आप इन्हें उतारिए, मैं संधि करने को तैयार हूं।' उनके इतना कहते ही हनुमान जी ने तीसरा पर्वत उठाकर सिर पर रख लिया तो शनि देव चिल्ला कर कहते हैं, मैं अब आपके समीप नहीं आऊंगा। फिर भी हनुमान जी नहीं माने और चौथा पर्वत उठाकर सिर पर रख लिया। शनिदेव फिर चिल्लाते हैं, पवनकुमार ! त्राहि माम ताहि माम ! रामदूत ! आंजनेयाय नमः ! मैं उसको भी पीड़ित नहीं करूंगा जो आपका स्मरण करेगा। मुझे उतर जाने का अवसर दें।

हनुमान जी कहते हैं, बहुत शीघ्रता की। अभी तो पांचवां पर्वत (शिखर) बाकी है। और इतने में ही शनि मेरे पैरों में गिर गए, और कहा' मैं सदैव आपको दिये वचनों को स्मरण रखूंगा।'

आघात के उपचार के लिए शनिदेव तेल मांगने लगे। हनुमान जी तेल  कहां देने वाले थे। वही शनिदेव आज भी तेलदान से तुष्ट होते हैं।









~ जब हनुमान से हारे शनि - पौराणिक कथाएं


~ श्री लक्ष्मी - पौराणिक कथाएं



इसी दिन समुद्र मंथन के समय क्षीर सागर से लक्ष्मी जी प्रकट हुई थीं और भगवान विष्णु को अपना पति स्वीकार किया था। कथा इस प्रकार है-

एक बार भगवान शंकर के अंशभूत महर्षि दुर्वासा पृथ्वी पर विचर रहे थे। घूमत-घूमते वे एक मनोहर वन में गए। वहाँ एक विद्याधर सुंदरी हाथ में पारिजात पुष्पों की माला लिए खड़ी थी, वह माला दिव्य पुष्पों की बनी थी। उसकी दिव्य गंध से समस्त वन-प्रांत सुवासित हो रहा था। दुर्वासा ने विद्याधरी से वह मनोहर माला माँगी। विद्याधरी ने उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम करके वह माला दे दी। माला लेकर उन्मत्त वेषधारी मुनि ने अपने मस्तक पर डाल ली और पुनः पृथ्वी पर भ्रमण करने लगे।

इसी समय मुनि को देवराज इंद्र दिखाई दिए, जो मतवाले ऐरावत पर चढ़कर आ रहे थे। उनके साथ बहुत-से देवता भी थे। मुनि ने अपने मस्तक पर पड़ी माला उतार कर हाथ में ले ली। उसके ऊपर भौरे गुंजार कर रहे थे। जब देवराज समीप आए तो दुर्वासा ने पागलों की तरह वह माला उनके ऊपर फेंक दी। देवराज ने उसे ऐरावत के मस्तक पर डाल दिया। ऐरावत ने उसकी तीव्र गंध से आकर्षित हो सूँड से माला उतार ली और सूँघकर पृथ्वी पर फेंक दी। यह देख दुर्वासा क्रोध से जल उठे और देवराज इंद्र से इस प्रकार बोले, ''अरे ओ इंद्र! ऐश्वर्य के घमंड से तेरा ह्रदय दूषित हो गया है। तुझ पर जड़ता छा रही है, तभी तो मेरी दी हुई माला का तूने आदर नहीं किया है। वह माला नहीं, श्री लक्ष्मी जी का धाम थी। माला लेकर तूने प्रणाम तक नहीं किया। इसलिए तेरे अधिकार में स्थित तीनों लोकों की लक्ष्मी शीघ्र ही अदृश्य हो जाएगी।'' यह शाप सुनकर देवराज इंद्र घबरा गए और तुरंत ही ऐरावत से उतर कर मुनि के चरणों में पड़ गए। उन्होंने दुर्वासा को प्रसन्न करने की लाख चेष्टाएँ कीं, किंतु महर्षि टस-से-मस न हुए। उल्टे इंद्र को फटकार कर वहाँ से चल दिए। इंद्र भी ऐरावत पर सवार हो अमरावती को लौट गए। तबसे तीनों लोकों की लक्ष्मी नष्ट हो गई। इस प्रकार त्रिलोकी के श्रीहीन एवं सत्वरहित हो जाने पर दानवों ने देवताओं पर चढ़ाई कर दी। देवताओं में अब उत्साह कहाँ रह गया था? सबने हार मान ली। फिर सभी देवता ब्रह्माजी की शरण में गए। ब्रह्माजी ने उन्हें भगवान विष्णु की शरण में जाने की सलाह दी तथा सबके साथ वे स्वयं भी क्षीरसागर के उत्तर तट पर गए। वहाँ पहुँच कर ब्रह्मा आदि देवताओं ने बड़ी भक्ति से भगवान विष्णु का स्तवन किया। भगवान प्रसन्न होकर देवताओं के सम्मुख प्रकट हुए। उनका अनुपम तेजस्वी मंगलमय विग्रह देखकर देवताओं ने पुनः स्तवन किया, तत्पश्चात भगवान ने उन्हें क्षीरसागर को मथने की सलाह दी और कहा, ''इससे अमृत प्रकट होगा। उसके पान करने से तुम सब लोग अजर-अमर हो जाओगे, किंतु यह कार्य है बहुत दुष्कर अतः तुम्हें दैत्यों को भी अपना साथी बना लेना चाहिए। मैं तो तुम्हारी सहायता करूँगा ही...।''

भगवान की आज्ञा पाकर देवगण दैत्यों से संधि करके अमृत-प्राप्ति के लिए प्रयास करने लगे। वे भाँति-भाँति की औषधियाँ लाएँ और उन्हें क्षीरसागर में छोड़ दिया, फिर मंदराचल पर्वत को मथानी और वासुकि नागराज को नेती (रस्सी) बनाकर बड़े वेग से समुद्र मंथन का कार्य आरंभ किया। भगवान ने वासुकि की पूँछ की ओऱ देवताओं को और मुख की ओर दैत्यों को लगाया। मंथन करते समय वासुकि की निःश्वासाग्नि से झुलसकर सभी दैत्य निस्तेज हो गए और उसी निःश्वास वायु से विक्षिप्त होकर बादल वासुकि की पूँछ की ओर बरसते थे, जिससे देवताओं की शक्ति बढ़ती गई। भक्त वत्सल भगवान विष्णु स्वयं कच्छप रूप धारण कर क्षीरसागर में घूमते हुए मंदराचल के आधार बने हुए थे। वे ही एक रूप से देवताओं में और एक रूप से दैत्यों में मिलकर नागराज को खींचने में भी सहायता देते थे तथा एक अन्य विशाल रूप से, जो देवताओं और दैत्यों को दिखाई नहीं देता था, उन्होंने मंदराचल को ऊपर से दबा रखा था। इसके साथ ही वे नागराज वासुकि में भी बल का संचार करते थे और देवताओं की भी शक्ति बढ़ा रहे थे।

इस प्रकार मंथन करने पर क्षीरसागर से क्रमशः कामधेनु, वारुणी देवी, कल्पवृक्ष, और अप्सराएँ प्रकट हुईं। इसके बाद चंद्रमा निकले, जिन्हें महादेव जी ने मस्तक पर धारण किया। फिर विष प्रकट हुआ जिसे नागों ने चाट लिया। तदनंतर अमृत का कलश हाथ में लिए धन्वंतरि का प्रादुर्भाव हुआ। इससे देवताओं और दानवों को भी बड़ी प्रसन्नता हुई। सबके अंत में क्षीर समुद्र से भगवती लक्ष्मी देवी प्रकट हुईं। वे खिले हुए कमल के आसन पर विराजमान थीं। उनके अंगों की दिव्य कांति सब ओर प्रकाशित हो रही थी। उनके हाथ में कमल शोभा पा रहा था। उनका दर्शन कर देवता और महर्षिगण प्रसन्न हो गए। उन्होंने वैदिक श्रीसूक्त का पाठ करके लक्ष्मी देवी का स्तवन करके दिव्य वस्त्राभूषण अर्पित किए। वे उन दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित होकर सबके देखते-देखते अपने सनातन स्वामी श्रीविष्णु भगवान के वक्षस्थल में चली गई। भगवान को लक्ष्मी जी के साथ देखकर देवता प्रसन्न हो गए। दैत्यों को बड़ी निराशा हुई। उन्होंने धन्वंतरि के हाथ से अमृत का कलश छीन लिया, किंतु भगवान ने मोहिनी स्त्री के रूप से उन्हें अपनी माया द्वारा मोहित करके सारा अमृत देवताओं को ही पिला दिया। तदनंतर इंद्र ने बड़ी विनय और भक्ति के साथ श्रीलक्ष्मी जी ने देवताओं को मनोवांछित वरदान दिया।










~ श्री लक्ष्मी - पौराणिक कथाएं


एकलव्य की गुरुभक्ति - पौराणिक कथाएं



आचार्य द्रोण राजकुमारों को धनुर्विद्या की विधिवत शिक्षा प्रदान करने लगे। उन राजकुमारों में अर्जुन के अत्यन्त प्रतिभावान तथा गुरुभक्त होने के कारण वे द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य थे। द्रोणाचार्य का अपने पुत्र अश्वत्थामा पर भी विशेष अनुराग था इसलिये धनुर्विद्या में वे भी सभी राजकुमारों में अग्रणी थे, किन्तु अर्जुन अश्वत्थामा से भी अधिक प्रतिभावान थे। एक रात्रि को गुरु के आश्रम में जब सभी शिष्य भोजन कर रहे थे तभी अकस्मात् हवा के झौंके से दीपक बुझ गया। अर्जुन ने देखा अन्धकार हो जाने पर भी भोजन के कौर को हाथ मुँह तक ले जाता है। इस घटना से उन्हें यह समझ में आया कि निशाना लगाने के लिये प्रकाश से अधिक अभ्यास की आवश्यकता है और वे रात्रि के अन्धकार में निशाना लगाने का अभ्यास करना आरम्भ कर दिया। गुरु द्रोण उनके इस प्रकार के अभ्यास से अत्यन्त प्रसन्न हुये। उन्होंने अर्जुन को धनुर्विद्या के साथ ही साथ गदा, तोमर, तलवार आदि शस्त्रों के प्रयोग में निपुण कर दिया।
उन्हीं दिनों हिरण्य धनु नामक निषाद का पुत्र एकलव्य भी धनुर्विद्या सीखने के उद्देश्य से द्रोणाचार्य के आश्रम में आया किन्तु निम्न वर्ण का होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया। निराश हो कर एकलव्य वन में चला गया। उसने द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उस मूर्ति को गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। एकाग्रचित्त से साधना करते हुये अल्पकाल में ही वह धनु्र्विद्या में अत्यन्त निपुण हो गया।

एक दिन सारे राजकुमार गुरु द्रोण के साथ आखेट के लिये उसी वन में गये जहाँ पर एकलव्य आश्रम बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। राजकुमारों का कुत्ता भटक कर एकलव्य के आश्रम में जा पहुँचा। एकलव्य को देख कर वह भौंकने लगा। इससे क्रोधित हो कर एकलव्य ने उस कुत्ते अपना बाण चला-चला कर उसके मुँह को बाणों से से भर दिया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी किन्तु बाणों से बिंध जाने के कारण उसका भौंकना बन्द हो गया।

कुत्ते के लौटने पर जब अर्जुन ने धनुर्विद्या के उस कौशल को देखा तो वे द्रोणाचार्य से बोले, "हे गुरुदेव! इस कुत्ते के मुँह में जिस कौशल से बाण चलाये गये हैं उससे तो प्रतीत होता है कि यहाँ पर कोई मुझसे भी बड़ा धनुर्धर रहता है।" अपने सभी शिष्यों को ले कर द्रोणाचार्य एकलव्य के पास पहुँचे और पूछे, "हे वत्स! क्या ये बाण तुम्हीं ने चलाये है?" एकलव्य के स्वीकार करने पर उन्होंने पुनः प्रश्न किया, "तुम्हें धनुर्विद्या की शिक्षा देने वाले कौन हैं?" एकलव्य ने उत्तर दिया, "गुरुदेव! मैंने तो आपको ही गुरु स्वीकार कर के धनुर्विद्या सीखी है।" इतना कह कर उसने द्रोणाचार्य की उनकी मूर्ति के समक्ष ले जा कर खड़ा कर दिया।

द्रोणाचार्य नहीं चाहते थे कि कोई अर्जुन से बड़ा धनुर्धारी बन पाये। वे एकलव्य से बोले, "यदि मैं तुम्हारा गुरु हूँ तो तुम्हें मुझको गुरुदक्षिणा देनी होगी।" एकलव्य बोला, "गुरुदेव! गुरुदक्षिणा के रूप में आप जो भी माँगेंगे मैं देने के लिये तैयार हूँ।" इस पर द्रोणाचार्य ने एकलव्य से गुरुदक्षिणा के रूप में उसके दाहिने हाथ के अँगूठे की माँग की। एकलव्य ने सहर्ष अपना अँगूठा दे दिया। इस प्रकार एकलव्य अपने हाथ से धनुष चलाने में असमर्थ हो गया तो अपने पैरों से धनुष चलाने का अभ्यास करना आरम्भ कर दिया।









~ एकलव्य की गुरुभक्ति - पौराणिक कथाएं


मत्स्य अवतार - विष्णु पुराण


 मत्स्य अवतार भगवान विष्णु के प्रथम अवतार है। मछली के रूप में अवतार लेकर भगवान विष्णु ने एक ऋषि को सब प्रकार के जीव-जन्तु एकत्रित करने के लिये कहा और पृथ्वी जब जल में डूब रही थी, तब मत्स्य अवतार में भगवान ने उस ऋषि की नाव की रक्षा की। इसके पश्चात ब्रह्मा ने पुनः जीवन का निर्माण किया।
 एक दूसरी मन्यता के अनुसार एक राक्षस ने जब वेदों को चुरा कर सागर की अथाह गहराई में छुपा दिया, तब भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों को प्राप्त किया और उन्हें पुनः स्थापित किया।

 मत्स्य अवतार की कथा
एक बार ब्रह्माजी की असावधानी के कारण एक बहुत बड़े दैत्य ने वेदों को चुरा लिया। उस दैत्य का नाम हयग्रीव था। वेदों को चुरा लिए जाने के कारण ज्ञान लुप्त हो गया। चारों ओर अज्ञानता का अंधकार फैल गया और पाप तथा अधर्म का बोलबाला हो गया। तब भगवान विष्णु ने धर्म की रक्षा के लिए मत्स्य रूप धारण करके हयग्रीव का वध किया और वेदों की रक्षा की। भगवान ने मत्स्य का रूप किस प्रकार धारण किया।
 इसकी विस्मयकारिणी कथा इस प्रकार है-
 कल्पांत के पूर्व एक पुण्यात्मा राजा तप कर रहा था। राजा का नाम सत्यव्रत था। सत्यव्रत पुण्यात्मा तो था ही, बड़े उदार हृदय का भी था। प्रभात का समय था। सूर्योदय हो चुका था। सत्यव्रत कृतमाला नदी में स्नान कर रहा था। उसने स्नान करने के पश्चात जब तर्पण के लिए अंजलि में जल लिया, तो अंजलि में जल के साथ एक छोटी-सी मछली भी आ गई। सत्यव्रत ने मछली को नदी के जल में छोड़ दिया। मछली बोली- राजन! जल के बड़े-बड़े जीव छोटे-छोटे जीवों को मारकर खा जाते हैं। अवश्य कोई बड़ा जीव मुझे भी मारकर खा जाएगा। कृपा करके मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए। सत्यव्रत के हृदय में दया उत्पन्न हो उठी। उसने मछली को जल से भरे हुए अपने कमंडलु में डाल लिया। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। एक रात में मछली का शरीर इतना बढ़ गया कि कमंडलु उसके रहने के लिए छोटा पड़ने लगा। दूसरे दिन मछली सत्यव्रत से बोली- राजन! मेरे रहने के लिए कोई दूसरा स्थान ढूंढ़िए, क्योंकि मेरा शरीर बढ़ गया है। मुझे घूमने-फिरने में बड़ा कष्ट होता है। सत्यव्रत ने मछली को कमंडलु से निकालकर पानी से भरे हुए मटके में रख दिया। यहाँ भी मछली का शरीर रात भर में ही मटके में इतना बढ़ गया कि मटका भी उसके रहने कि लिए छोटा पड़ गया। दूसरे दिन मछली पुनः सत्यव्रत से बोली- राजन! मेरे रहने के लिए कहीं और प्रबंध कीजिए, क्योंकि मटका भी मेरे रहने के लिए छोटा पड़ रहा है। तब सत्यव्रत ने मछली को निकालकर एक सरोवर में डाल किया, किंतु सरोवर भी मछली के लिए छोटा पड़ गया। इसके बाद सत्यव्रत ने मछली को नदी में और फिर उसके बाद समुद्र में डाल दिया। आश्चर्य! समुद्र में भी मछली का शरीर इतना अधिक बढ़ गया कि मछली के रहने के लिए वह छोटा पड़ गया। अतः मछली पुनः सत्यव्रत से बोली- राजन! यह समुद्र भी मेरे रहने के लिए उपयुक्त नहीं है। मेरे रहने की व्यवस्था कहीं और कीजिए।
 अब सत्यव्रत विस्मित हो उठा। उसने आज तक ऐसी मछली कभी नहीं देखी थी। वह विस्मय-भरे स्वर में बोला- मेरी बुद्धि को विस्मय के सागर में डुबो देने वाले आप कौन हैं?

मत्स्य रूपधारी श्रीहरि ने उत्तर दिया- राजन! हयग्रीव नामक दैत्य ने वेदों को चुरा लिया है। जगत में चारों ओर अज्ञान और अधर्म का अंधकार फैला हुआ है। मैंने हयग्रीव को मारने के लिए ही मत्स्य का रूप धारण किया है। आज से सातवें दिन पृथ्वी प्रलय के चक्र में फिर जाएगी। समुद्र उमड़ उठेगा। भयानक वृष्टि होगी। सारी पृथ्वी पानी में डूब जाएगी। जल के अतिरिक्त कहीं कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होगा। आपके पास एक नाव पहुँचेगी। आप सभी अनाजों और औषधियों के बीजों को लेकर सप्त ऋषियों के साथ नाव पर बैठ जाइएगा। मैं उसी समय आपको पुनः दिखाई पड़ूँगा और आपको आत्मतत्त्व का ज्ञान प्रदान करूँगा। सत्यव्रत उसी दिन से हरि का स्मरण करते हुए प्रलय की प्रतीक्षा करने लगे। सातवें दिन प्रलय का दृश्य उपस्थित हो उठा। समुद्र भी उमड़कर अपनी सीमाओं से बाहर बहने लगा। भयानक वृष्टि होने लगी। थोड़ी ही देर में सारी पृथ्वी पर जल ही जल हो गया। संपूर्ण पृथ्वी जल में समा गई। उसी समय एक नाव दिखाई पड़ी। सत्यव्रत सप्त ऋषियों के साथ उस नाव पर बैठ गए। उन्होंने नाव के ऊपर संपूर्ण अनाजों और औषधियों के बीज भी भर लिए।


नाव प्रलय के सागर में तैरने लगी। प्रलय के उस सागर में उस नाव के अतिरिक्त कहीं भी कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। सहसा मत्स्य रूपी भगवान प्रलय के सागर में दिखाई पड़े। सत्यव्रत और सप्त ऋषि गण मतस्य रूपी भगवान की प्रार्थना करने लगे
भगवान से आत्मज्ञान पाकर सत्यव्रत का जीवन धन्य हो उठा। वे जीते जी ही जीवन मुक्त हो गए। प्रलय का प्रकोप शांत होने पर मत्स्य रूपी भगवान ने हयग्रीव को मारकर उससे वेद छीन लिए। भगवान ने ब्रह्माजी को पुनः वेद दे दिए। इस प्रकार भगवान ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों का उद्धार तो किया ही, साथ ही संसार के प्राणियों का भी अमित कल्याण किया।

       
       
       
 



~ मत्स्य अवतार - विष्णु पुराण


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सच्चा दानवीर -

एक बार अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा, 'मैंने आज तक संसार में बड़े भ्राता युधिष्ठिर जितना दानवीर कोई दूसरा नहीं देखा।' श्रीकृष्ण बोले, 'पार्थ, यह तुम्हारा भ्रम है। इस दुनिया में कई दानवीर ऐसे हैं जो बिना सोचे-समझे मूल्यवान से मूल्यवान वस्तु का दान देने से नहीं हिचकते।' श्रीकृष्ण की इस बात पर अर्जुन ने आपत्ति की, 'भला कोई व्यक्ति स्वयं को नुकसान पहुंचा कर किसी को मूल्यवान से मूल्यवान वस्तु दान में क्यों देने लगा?'

इस पर श्रीकृष्ण मुस्करा कर बोले, 'चिंता न करो पार्थ, तुम्हारा यह भ्रम कुछ समय बाद दूर हो जाएगा। ऐसा एक व्यक्ति तो मेरी ही नजर में है, जो कीमती से कीमती वस्तु का दान देने के लिए भी तनिक भी संकोच नहीं करता। समय आने पर तुम्हें स्वयं इस बात का पता चल जाएगा और तुम अपनी धारणा बदल दोगे।'

काफी दिन बीत गए और अर्जुन इस प्रसंग को भूल गए। बरसात का मौसम आ गया, तब एक दिन श्रीकृष्ण और अर्जुन भिक्षुक का वेश बनाकर युधिष्ठिर के द्वार पर पहुंचे। युधिष्ठिर ने बड़े प्रेम से उनका स्वागत किया। वे भिक्षुक वेश में श्रीकृष्ण और अर्जुन को नहीं पहचान पाए। कुछ देर बाद भिक्षुकों ने युधिष्ठिर से सूखे चंदन की लकड़ी मांगी। युधिष्ठिर ने उनकी मांग को पूरा करने का प्रयत्न किया किंतु कहीं पर भी चंदन की सूखी लकड़ी नहीं मिली। इस पर युधिष्ठिर ने असमर्थता जताते हुए कहा, 'वर्षाकाल में चंदन की सूखी लकड़ी मिलना असंभव है।'

युधिष्ठिर से निराश होकर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों कर्ण के द्वार पर पहुंचे और वही मांग दोहराई। कर्ण ने उन दोनों का स्नेहपूर्वक स्वागत किया और बोले, 'हे विप्र देव! आप बैठें, मैं कोई न कोई व्यवस्था करता हूं।' जब कर्ण को भी भरसक प्रयत्न करने पर चंदन की सूखी लकड़ी नहीं मिली तो उन्होंने बिना एक पल गंवाए अपने महल के कीमती चंदन के दरवाजे उतार कर दे दिए। अर्जुन कर्ण की दानवीरता देखकर दंग रह गए।

वेदव्यास जी का जन्म - पौराणिक कथाएं

[27/10 8:12 pm] Ravi Sharma: राजा उपरिचर एक महान प्रतापी राजा था| वह बड़ा धर्मात्मा और बड़ा सत्यव्रती था| उसने अपने तप से देवराज इंद्र को प्रसन्न करके एक विमान और न सूखने वाली सुंदर माला प्राप्त की थी| वह माला धारण करके, विमान पर बैठकर आकाश में परिभ्रमण किया करता था| उसे आखेट का बड़ा चाव था| वह प्राय: वनों में आखेट के लिए जाया करता था|

उपरिचर की रानी का नाम गिरिका था| गिरिका भी बड़ी सुंदर और पवित्र हृदया थी| वह अपने पति को प्रेम तो करती ही थी, ईश्वर के प्रति भी बड़ी आस्थालु थी| निरंतर भजन और चिंतन में लगी रहती थी|

एक बार गिरिका ऋतुमती हुई| तीन दिनों के पश्चात जब वह शुद्ध हुई, तो उपरिचर उसके साथ रमण करने से पूर्व ही वन में आखेट के लिए चला गया| राजा आखेट के लिए चला तो गया, किंतु उसका ध्यान रानी के साथ रमण करने की ओर ही लगा रहा|

दोपहर का समय था| राजा वन में एक अशोक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था| शीतल और सुगंधित हवा चल रही थी| मृदुल स्वरों में पक्षी गान कर रहे थे| राजा का ध्यान रानी की ओर चला गया| वह रमण के संबंध में मन ही मन सोचने लगा| राजा कामातुर हो उठा और उसका वीर्य स्खलित हो गया|

राजा ने सोचा, उसका वीर्य व्यर्थ नहीं जा सकता| अत: उसने अपने वीर्य को एक दोने में रखकर विमान में बैठे हुए बाज पक्षी को बुलाकर उससे कहा, "तुम इस दोने को ले जाकर मेरी रानी को दे दो| वह इसे अपने गर्भ में धारण कर लेगी|"

बाज दोने को मुख में दबाकर राजा के भवन की ओर उड़ चला| वह यमुना नदी के ऊपर से उड़ता हुआ चला जा रहा था| सहसा एक दूसरे बाज की दृष्टि उस पर पड़ी| इसने सोचा, यह अपने मुख में खाने की कोई वस्तु दबाए हुए है| अत: उसने उस बाज पर आक्रमण कर दिया|

दोनों बाजों में घमासन युद्ध करने लगा| परिणाम यह हुआ कि पहले बाज के मुख से दोना छूटकर, यमुना के जल में गिर पड़ा| दोने में रखा वीर्य पानी में मिल गया| एक मछली की वीर्य पर दृष्टि पड़ी| उसने सोचा यह खाने की वस्तु है| अत: वह उसको पानी के साथ निगल गई|

फलत: मछली गर्भवती हो गई| दासराज नामक मल्लाह को वह मछली शिकार में मिली| जब उसने मछली के पेट को बीचो बीच से काटा तो उसके पेट से एक बालक और एक बालिका निकली| दासराज ने दोनों को उपरिचर को भेंट कर दिया| उपरिचर ने बालक को तो अपने पास रख लिया, पर बालिका को दासराज को लौटा दिया| दासराज उस बालिका को अपने घर ले जाकर उसका पालन-पोषण करने लगा| दासराज ने बालिका का नाम सत्यवती रखा| वह मछली के पेट से उत्पन्न थी, इसलिए उसके शरीर से मछली की सी गंध निकला करती थी| अत: लोग उसे मत्स्यगंधा भी कहा करते थे| मत्स्यगंधा धीरे-धीरे बड़ी हुई| वह बड़ी रूपवती थी| वह रात्रियों को अपनी नाव पर बैठाकर इस पार से उस पार पहुंचाया करती थी| एक दिन दोपहर के समय महर्षि पराशर वहां जा पहुंचे| वे मत्स्यगंधा को देखकर उस पर मुग्ध हो गए| उन्होंने उससे कहा, "सुंदरी, तुम्हें अपूर्व सुख मिलेगा| मैं तुम्हारे साथ रमण करना चाहता हूं|" मत्स्यगंधा ने उत्तर दिया, "महर्षे, आप यह कैसी बातें कर रहे हैं ? दोपहर का समय है| आसपास लोग बैठे हुए हैं, मैं आपके साथ रमण कैसे कर सकती हूं ?" पराशर जी ने योगशक्ति से चारों ओर कुहरा पैदा करदिया| और बोले, "अब हमें कोई नहीं देख सकेगा| तू निश्चिंत होकर मेरे प्रस्ताव को स्वीकार कर ले|" मत्स्यगंधा पुन: बोल उठी, "महर्षे, मैं कुमारी हूं| पिता की आज्ञा के अधीन हूं| आपके साथ रमण करने से मेरा कौमार्य नष्ट हो जाएगा| मैं समाज में लांछित बन जाऊंगी|" पराशर जी ने उत्तर दिया, "तुम चिंता मत करो| मुझसे रमण करने के पश्चात भी तुम्हारा कौमार्य बना रहेगा| गर्भवती होने पर भी गर्भ का चिह्न प्रकट नहीं होगा|" मत्स्यगंधा फिर बोली, "एक बात और, मेरे शरीर से मछली की सी गंध निकलती है| आप मुझे वरदान दें कि वह गंध के रूप में बदल जाए और चार कोस तक फैली रहे|" पराशर जी ने तथास्तु कह दिया| फलत: मत्स्यगंधा के शरीर से कस्तूरी की सी गंध निकलने लगी| वह गंध चार कोस तक फैली रहती थी| अत: अब वह योजनगंधा भी कही जाने लगी| पराशर जी ने मत्स्यगंधा के साथ रमण किया| उनके साथ रमण के फलस्वरूप वह गर्भवती हुई| समय पर यमुना के द्वीप में एक बालक ने उसके गर्भ से जन्म लिया| वह बालक जन्म लेते ही बड़ा हो गया, वह तप करने के लिए वन में चला गया| वही बालक जगत में वेदव्यास जी के नाम से प्रसिद्ध हुआ| वेदव्यास जी का पूरा नाम कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास था| वे श्याम वर्ण के थे, इसलिए उनका नाम कृष्ण पड़ा| वे दो द्वीपों के बीच में पैदा हुए थे, इसलिए द्वैपायन कहे जाते थे| वेदों के पंडित होने से वेदव्यास कहे जाते थे| वेदव्यास जी अमर हैं, वे आज भी धरती पर विद्यमान हैं और किसी-किसी को दर्शन देकर कृतार्थ करते हैं|









~ वेदव्यास जी का जन्म - पौराणिक कथाएं

Mata tara rani ki Aage ki katha

देवताओं ने उस छिपकली के लिए प्रार्थना की कि उसे सब योनियों में उत्‍तम मनुष्‍य जन्‍म प्राप्‍त हो तथा अन्‍त में वह मोक्ष को प्राप्‍त करे।

तीसरे जन्‍म में वह छिपकली राजा स्‍पर्श के घर कन्‍या के रूप में जन्‍मी। दूसरी बहन तारा देवी ने फिर मनुष्‍य जन्‍म लेकर तारामती नाम से अयोध्‍या के प्रतापी राजा हरिश्‍चन्‍द्र के साथ विवाह किया।




राजा स्‍पर्श ने ज्‍योतिषियों से कन्‍या की कुण्‍डली बनवाई ज्‍योतिषियों ने राजा को बताया कि कन्‍या आपके लिये हानिकारक सिद्ध होगी, शकुन ठीक नहीं है। अत: वे उसे मरवा दें। राजा बोले कि लड़की को मारने का पाप बहुत बड़ा है। वे उस पाप का भागी नहीं बन सकते।

तब ज्‍योतिषियों ने विचार करके राय दी कि राजा उसे एक लकड़ी के सन्‍दूक में बन्द करके ऊपर से सोना-चांदी आदि जड़वा दें और फिर उस सन्‍दूक के भीतर लड़की को बन्‍द करके नदी में प्रवाहित करवा दें। सोने चांदी से जड़ा हुआ सन्‍दूक अवश्‍य ही कोई लालच में आकर निकाल लेगा और राजा को कन्या वध का पाप भी नहीं लगेगा। ऐसा ही किया गया और नदी में बहता हुआ सन्‍दूक काशी के समीप एक भंगी को दिखाई दिया तो वह सन्‍दूक को नदी से बाहर निकाल लाया।

उसने जब सन्‍दूक खोला तो सोने-चांदी के अतिरिक्‍त अत्‍यन्‍त रूपवान कन्‍या दिखाई दी। उस भंगी के कोई संतान नहीं थी। उसने अपनी पत्‍नी को वह कन्‍या लाकर दी तो पत्‍नी की प्रसन्‍नता का ठिकाना न रहा। उसने अपनी संतान के समान ही बच्‍ची को छाती से लगा लिया। भगवती की कृपा से उसके स्‍तनो में दूध उतर आया, पति-पत्‍नी दोनो ने प्रेम से कन्‍या का नाम रूक्‍को रख दिया। रूक्‍को बड़ी हुई तो उसका विवाह हुआ। रूक्‍को की सास महाराजा हरिश्‍चन्‍द्र के घर सफाई आदि का काम करने जाया करती थी। एक दिन वह बीमार पड़ गई तो तो रूक्‍को महाराजा हरिश्‍चन्‍द्र के घर काम करने के लिये पहुँच गई। महाराज की पत्‍नी तारामती ने जब रूक्‍को को देखा तो वह अपने पूर्व जन्‍म के पुण्‍य से उसे पहचान गई। तारामती ने रूक्‍को से कहा की वो उसके पास आकर बैठे। महारानी की बात सुनकर रूक्‍को बोली कि वो एक नीचि जाति की भंगिन है, भला वह रानी के पास कैसे बैठ सकती थी ?

तब तारामती ने उसे बताया कि वह उसके पूर्व जन्‍म के सगी बहन थी। एकादशी का व्रत खंडित करने के कारण उसे छिपकली की योनि में जाना पड़ा जो होना था। जो होना था वो तो हो चुका। अ‍ब उसे अपने वर्तमान जन्म को सुधारने का उपाय करना चाहिये और भगवती वैष्‍णों माता की सेवा करके अपना जन्‍म सफल बनाना चाहिये। यह सुनकर रूक्‍को को बड़ी प्रसन्‍नता हुई और जब उसने उपाय पूछा तो रानी ने बताया कि वैष्‍णों माता सब मनोरथों को पूरा करने वाली हैं। जो लोग श्रद्धापूर्वक माता का पूजन व जागरण करते हैं, उनकी सब मनोकाना पूर्ण होती हैं।

रूक्‍को ने प्रसन्‍न होकर माता की मनौती मानते हुये कहा कि यदि माता की कृपा से उसे एक पुत्र प्राप्‍त हो गया तो वो माता का पूजन व जागरण करायेगी। माता ने प्रार्थना को स्‍वीकार कर लिया। फलस्‍वरूप दसवें महीने उसके गर्भ से एक अत्‍यन्‍त सुन्‍दर बालक ने जन्‍म लिया; परन्‍तु दुर्भाग्‍यवश रूक्‍को को माता का पूजन-जागरण कराने का ध्‍यान न रहा। जब वह बालक पांच वर्ष का हुआ तो एक दिन उसे माता (-चेचक) निकल आई। रूक्‍को दु:खी होकर अपने पूर्वजन्‍म की बहन तारामती के पास आई और बच्‍चे की बीमारी का सब वृतान्‍त कह सुनाया। तब तारामती ने पूछा कि उससे माता के पूजन में कोई भूल तो नहीं हुई । इस पर रूक्‍को को छह वर्ष पहले की बात याद आ गई। उसने अपराध स्‍वीकार कर लिया। उसने फिर मन में निश्‍चय किया कि बच्‍चे को आराम आने पर जागरण अवश्‍य करवायेगी।

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तारा रानी की कथा

राजा स्‍पर्श माँ भगवती के पुजारी थे और रात-दिन महामाई की पूजा किया करते थे। माँ ने भी उन्हें राजपाट, धन-दौलत, ऐशो-आराम के सभी साधन दिये थे, कमी थी तो सिर्फ यह कि उनके घर में कोई संतान नही थी। यह गम उन्हें दिन-रात सताता था। वो माँ से यही प्रार्थना करते थे कि माँ उन्हें एक लाल बख्‍श दें, ताकि वे भी संतान का सुख भोग सकें। उनके पीछे भी उनका नाम लेने वाला हो, उनका वंश चलता रहे। माँ ने उसकी पुकार सुन ली। एक दिन माँ ने आकर राजा को स्‍वप्‍न में दर्शन दिये और कहा कि वे उसकी तेरी भक्ति से बहुत प्रसन्‍न हैं। उन्होंने राजा को दो पुत्रियाँ प्राप्त होने का वरदान दिया।

कुछ समय के बाद राजा के घर में एक कन्‍या ने जन्‍म लिया, राजा ने अपने राज दरबारियों को बुलाया, पण्डितों व ज्‍योतिषों को बुलाया और बच्‍ची की जन्‍म कुण्‍डली तैयार करने का आदेश दिया।पण्डित तथा ज्‍योतिषियों ने उस बच्‍ची की जन्‍म कुण्‍डली तैयार की और कहा कि वो कन्‍या तो साक्षात देवी है। यह कन्‍या जहाँ भी कदम रखेगी, वहाँ खुशियां ही खुशियां होंगी। कन्‍या भी भगवती की पुजारिन होगी। उस कन्‍या का नाम तारा रखा गया। थोड़े समय बाद राजा के घर वरदान के अनुसार एक और कन्‍या ने जन्‍म लिया। मंगलवार का दिन था।

पण्डितों और ज्‍योतिषियों ने जब जन्‍म कुण्‍डली तैयार की तो उदास हो गये। राजा ने उदासी का कारण पूछा तो वे कहने लगे की वह कन्‍या राजा के लिये शुभ नहीं है। राजा ने उदास होकर ज्‍योतिषियों से पूछा कि उन्होंने ऐसे कौन से बुरे कर्म किये हैं जो कि इस कन्‍या ने उनके घर में जन्‍म लिया ? उस समय ज्‍योतिषियों ने ज्‍योतिष से अनुमान लगाकर बताया कि वे दोनो कन्‍याएं जिन्‍होंने उनके घर में जन्‍म लिया था, पूर्व जन्‍म में देवराज इन्‍द्र के दरबार की अप्‍सराएं थीं। उन्‍होंने सोचा कि वे भी मृत्‍युलोक में भ्रमण करें तथा देखें कि मृत्‍युलोक में लोग किस तरह रहते हैं। दोनो ने मृत्‍युलोक पर आकर एकादशी का व्रत रखा। बड़ी बहन का नाम तारा था तथा छोटी बहन का नाम रूक्‍मन। बड़ी बहन तारा ने अपनी छोटी बहन से कहा कि रूक्‍मन आज एकादशी का व्रत है, हम लोगों ने आज भोजन नहीं करना।अतः वो बाजार जाकर फल कुछ ले आये। रूक्‍मन बाजार फल लेने के लिये गई। वहां उसने मछली के पकोड़े बनते देखे। उसने अपने पैसों के तो पकोड़े खा लिये तथा तारा के लिये फल लेकर वापस आ गई और फल उसने तारा को दे दिये। तारा के पूछने पर उसने बताया कि उसने मछली के पकोड़े खा लिये हैं।



तारा ने उसको एकादशी के दिन माँस खाने के कारण शाप दिया कि वो निम्न योनियों में गिरे। छिपकली बनकर सारी उम्र ही कीड़े-मकोड़े खाती रहे।

उसी देश में एक ऋषि गुरू गोरख अपने शिष्‍यों के साथ रहते थे। उनके शिष्‍यों में एक शिष्य तेज स्‍वभाव का तथा घमण्‍डी था। एक दिन वो घमण्‍डी शिष्‍य पानी का कमण्‍डल भरकर खुले स्‍थान में, एकान्‍त में, जाकर तपस्‍या पर बैठ गया। वो अपनी तपस्‍या में लीन था, उसी समय उधर से एक प्‍यासी कपिला गाय आ गई। उस ऋषि के पास पड़े कमण्‍डल में पानी पीने के लिए उसने मुँह डाला और सारा पानी पी गई। जब कपिता गाय ने मुँह बाहर निकाला तो खाली कमण्‍डल की आवाज सुनकर उस ऋषि की समाधि टूटी। उसने देखा कि गाय ने सारा पानी पी लिया था।

ऋषि ने गुस्‍से में आ उस कपिला गाय को बहुत बुरी तरह चिमटे से मारा; जिससे वह गाय लहुलुहान हो गई। यह खबर गुरू गोरख को मिली तो उन्‍होंने कपिला गाय की हालत देखी। उन्होंने अपने उस शिष्य को बहुत बुरा-भला कहा और उसी वक्‍त आश्रम से निकाल दिया। गुरू गोरख ने गौ माता पर किये गये पाप से छुटकारा पाने के लिए कुछ समय बाद एक यज्ञ रचाया। इस यज्ञ का पता उस शिष्‍य को भी चल गया, जिसने कपिला गाय को मारा था। उसने सोचा कि वह अपने अपमान का बदला जरूर लेगा। यज्ञ शुरू होने उस शिष्य ने एक पक्षी का रूप धारण किया और चोंच में सर्प लेकर भण्‍डारे में फेंक दिया; जिसका किसी को पता न चला। वह छिपकली जो पिछले जन्‍म में तारा देवी की छोटी बहन थी तथा बहन के शाप को स्‍वीकार कर छिपकली बनी थी, सर्प का भण्‍डारे में गिरना देख रही थी।

उसे त्‍याग व परोपकार की शिक्षा अब तक याद थी। वह भण्‍डारा होने तक घर की दीवार पर चिपकी समय की प्रतीक्षा करती रही। कई लोगो के प्राण बचाने हेतु उसने अपने प्राण न्‍योछावर कर लेने का मन ही मन निश्‍चय किया। जब खीर भण्‍डारे में दी जाने वाली थी, बाँटने वालों की आँखों के सामने ही वह छिपकली दीवार से कूदकर कढ़ाई में जा गिरी। लोग छिपकली को बुरा-भला कहते हुये खीर की कढ़ाई को खाली करने लगेतो उन्‍होंने उसमें मरे हुये सांप को देखा। तब जाकर सबको मालूम हुआ कि छिपकली ने अपने प्राण देकर उन सबके प्राणों की रक्षा की थी। उपस्थित सभी सज्‍जनों और देवताओं ने उस छिपकली के लिए प्रार्थना की कि उसे सब योनियों में उत्‍त.......

Thursday 26 October 2017

दादू राम मंदिर or PHOTO

Good morning dosto Alewa village ki ek maine website banayi hai usame aap alewa gaow ki jankari ke sath sath vedik manters or Gk bhi pad sakte ho open karne ke liye www.alewajind.blogspot.com     ye aap sedhe google search main likh ker pad sakte h best of luckभगवान श्रीराम भवसागर पार करानेवाले खेवनहार !

‘कैकयीको दिया वचन पूरा करने हेतु प्रभु श्रीरामचंद्र अपने भाई लक्ष्मण तथा पत्नी सीताके साथ वनवास जानेको निकले । प्रभु श्रीराम वनवासके मार्गपर गंगा नदीके सम्मुख आए । साक्षात प्रभु श्रीराम आए हैं, यह ज्ञात होते ही गुहक खेवैयाको बडा आनंद हुआ । वह दौडकर उनके पास आया तथा उन्हें साष्टांग प्रणाम कर कहा,“प्रभु, आपके दर्शनसे मैं धन्य हो गया ! मैं आपकी क्या सेवा करूं ?”

प्रभु श्रीराम बोले,“गुहक, तुमसे दूसरी किसी प्रकारकी सेवाकी हमारी अपेक्षा नहीं । अपनी नावसे केवल हमें गंगाके उसपार पहुंचा दो ।’’ अत: गुहकने उन तीनोंको गंगाके उसपार पहुंचा दिया । वहां पहुंचनेपर उनमें आगे दिया संभाषण हुआ ।

राम : गुहक, नावसे हमें गंगा नदीके इसपार पहुंचानेके पुरस्कार स्वरूप मैं तुम्हें क्या
दूं ?

गुहक : प्रभु, एक नाई दूसरे नाईके केश काटता है, तो क्या वह उससे कुछ लेता है ?

श्रीराम : नहीं ।

गुहक : प्रभु, एक वैद दूसरे वैदको दवाई देता है, तो क्या उससे दवाईके बदलेमें कुछ लेता है ?

श्रीराम : नहीं ।

गुहक : तो उसी प्रकार मैं तथा आप दोनों ही खेवनहार हैं; मैं आपसे क्या तथा कैसा पुरस्कार लूं ?

(गुहकके इस वक्तव्यसे श्रीरामको आश्चर्य हुआ । )

श्रीराम : गुहक, तुम खेवनहार हो, यह बात तो सही है; किंतु तुमने मुझे भी खेवनहार कैसे बना दिया ?

गुहक : प्रभु, मैं लागोंको नदीके उसपार पहुंचाता हूं; किंतु आप इच्छुक यात्रियोंको भवसागरके, अर्थात संसाररूपी सागरके उसपार पहुंचाते हैं । तो क्या आप मुझसे श्रेष्ठ खेवनहार नहीं ?

गुहकका यह तर्क सुनकर तथा उसका निरपेक्ष प्रेम देखकर प्रभु श्रीरामने उसे दृढ आलिंगन दिया । प्रभु श्रीरामका अलिंगन सुख अर्थात साक्षात जीवकी -शिवसे भेंट । गुहकको लगा जैसे उसका जीवन कृतार्थ हो गया हो । श्रीराम अवतार हैं, यह बात गुहककी समझमें आ गई । इस बातसे हमें पता चलता है कि उसका अध्यात्मिक स्तर कितना ऊंचा था । ’

वट सावित्री व्रत कथा ..

मद्र देश के राजा अश्वपति ने पत्नि सहित सन्तान के लिये सावित्री देवी का विधि पूर्वक व्रत तथा पूजन करके पुत्री होने पर वर प्राप्त किया । सर्वगुण देवी सावित्री ने पुत्री के रूप में अश्वपति के घर कन्या के रूप मे जन्म लिया । कन्या के युवा होने पर अश्वपति ने अपने मंत्री के साथ सावित्री को अपना पति चुनने के लिए भेज दिया सावित्री अपने मन के अनुकूल वर का चयन कर जब लौटी तो उसे उसी दिन देवर्षि नारद उनके यहाँ पधारे नारदजी ने पूछने पर सावित्री ने कहा,"महाराज द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान की कीर्ति सुनकर उन्हें मैंने पति रूप में वरण कर लिया है"।

नारदजी ने सत्यवान तथा सावित्री के ग्रहो की गणना कर अश्वति को बधाई दी तथा सत्यवान के गुणो की भूरि-भूरि प्रशंसा की और बताया कि सावित्री के बारह वर्ष की आयु होने पर सत्यवान कि मृत्यु हो जायेगी । नारदजी की बात सुनकर राजा अश्वपति का चेहरा मुर्झा गया उन्होने सावित्री से किसी अन्य को अपना पति चुनने की सलाह दी परन्तु सावित्री ने उतर दिया,"आर्य कन्या होने के नाते जब मै सत्यवान का वरण कर चुकी हूँ तो अब वे चाहे अल्पायु हों या दिर्घायु, मैं किसी अन्य को अपने ह्वदय मे स्थान नही दे सकती।" सावित्री ने नारदजी से सत्यवान की मृत्यु का समय ज्ञातकर लिया दोनो को विवाह हो गया ।

सावित्री अपने श्वसुर परिवार के साथ जंगल मे रहने लगी । नादरजी द्वारा बताय हुये दिन से तीन दिन पूर्व से ही सावित्री ने उपवास शुरू कर दिया। नारद द्वारा निश्चित तिथि को जब सत्यवान लकडी काटने के लिये चला तो सास-श्वसुर से आज्ञा लेकर वह भी सत्यवान के साथ चल दी । सत्यवान वन में पहुँचकर लकडी काटने के लिए चढा । वृक्ष पर चढने के बाद उसके सिर में भंयकर पीडा होने लगी। वह नीचे उतरा। सावित्री ने उसे बड के पेड के नीचे लिटा कर उसका सिर अपनी जाँघ पर रख लिया ।

देखते ही देखते यमराज ने ब्र्रह्या के विधान के रूप रेखा सावित्री के सामने स्पष्ट की और सत्यवान के प्राणो को लेकर चल दिये (कही-कही ऐसा भी उल्लेख मिलता हैं कि वट वृक्ष के नीचे लेटे हुए सत्यवान को सर्प ने डस लिया था) सावित्री सत्यावान को वट वृक्ष के नीचे ही लिटाकर यमराज के पीछे पीछे चल दी । पीछे आती हुई सावित्री को यमराज ने उसे लौट जाने का आदेश दिया । इस पर वह बोली महराज जहा पति वही पत्नि । यही धर्म है, यही मर्यादा है ।

सावित्री के धर्म निष्ठा से प्रसन्न होकर यमराज बोले पति के प्राणो से अतिरिक्त कुछ भी माँग लो । सावित्री ने यमराज से सास-श्वसुर के आँखो ज्योती और दीर्घायु माँगी । यमराज तथास्तु कहकर आगे बढ गए सावित्री भी यमराज का पीछा करते हुये रही । यमराज ने अपने पीछे आती सावित्री से वापिस लौटे जाने को कहा तो सावित्री बोली पति के बिना नारी के जीवन के कोई सार्थकता नही । यमराज ने सावित्री के पति व्रत धर्म से खुश होकर पुनः वरदान माँगने के लिये कहा इस बार उसने अपने श्वसुर का राज्य वापिस दिलाने की प्रार्थना की । तथास्तु कहकर यमराज आगे चल दिए सावित्री अब भी यमराज के पीछे चलती रही इस बार सावित्री ने सौ पुत्रो का वरदान दिया है, पर पति के बिना मैं पुत्रो का वरदान दिया है पर पति के बिना मैं माँ किस प्रकार बन सकती हूँ, अपना यह तीसरा वरदान पूरा कीजिए।

सावित्री की धर्मनिष्ठा,ज्ञान, विवेक तथा पतिव्रत धर्म की बात जानकर यमराज ने सत्यवान के प्राणो को अपने पाश से स्वतंत्र कर दिया । सावित्री सत्यवान के प्राण को लेकर वट वृक्ष के नीचे पहुँची जहाँ सत्यवान के प्राण को लेकर वट वृक्ष के नीचे पहुँची जहाँ सत्यवान का मृत शरीर रखा था । सावित्री ने वट वृक्ष की परिक्रमा की तो सत्यवान जीवित हो उठा । प्रसन्नचित सावित्री अपने सास-श्वसुर के पास पहुँची तो उन्हे नेत्र ज्योती प्राप्त हो गई इसके बाद उनका खोया हुआ राज्य भी उन्हे मिल गया आगे चलकर सावित्री सौ पुत्रो की माता बनी । इस प्रकार चारो दिशाएँ सावित्री के पतिव्रत धर्म के पालन की किर्ति से गूँज उठी ।

श्री दुर्गा नवरात्रि व्रत कथा |

प्राचीन समय में राजा सुरथ नाम के राजा थे, राजा प्रजा की रक्षा में उदासीन रहने लगे थे, परिणाम स्वरूप पडौसी राजा ने उस पर चढाई कर दी, सुरथ की सेना भी शत्रु से मिल गयी थी, परिणामस्वरूप राजा सुरथ की हार हुयी, और वह जान बचाकर जंगल की तरफ़ भागा।

उसी वन में समाधि नामका एक बनिया अपनी स्त्री एवं संतान के दुर्व्यवहार के कारण निवास करता था, उसी वन में बनिया समाधि और राजा सुरथ की भेंट हुई, दोनो का परस्पर परिचय हुआ, वे दोनो घूमते हुये, महर्षि मेघा के आश्रम में पहुंचे, महर्षि मेघा ने उन दोनो के आने का कारण पूंछा, तो वे दोनो बोले के हम अपने सगे सम्बन्धियों द्वारा अपमानित एवं तिरस्कृत होने पर भी हमारे ह्रदय में उनका मोह बना हुआ है, इसका कारण क्या है?

महर्षि मेघा ने उन्हे समझाया कि मन शक्ति के आधीन होता है, और आदि शक्ति के अविद्या और विद्या दो रूप है, विद्या ज्ञान स्वरूप है, और अविद्या अज्ञान स्वरूप, जो व्यक्ति अविद्या (अज्ञान) के आदिकरण रूप में उपासना करते है, उन्हे वे विद्या स्वरूपा प्राप्त होकर मोक्ष प्रदान करती हैं।

इतना सुन राजा सुरथ ने प्रश्न किया- हे महर्षि ! देवी कौन है? उसका जन्म कैसे हुआ? महर्षि बोले- आप जिस देवी के विषय में पूंछ रहे है, वह नित्य स्वरूपा और विश्वव्यापिनी है, उसके बारे में ध्यानपूर्वक सुनो, कल्पांत के समय विष्णु भगवान क्षीर सागर में अनन्त शैया पर शयन कर रहे थे, तब उनके दोनो कानों से मधु और कैटभ नामक दो दैत्य उत्पन्न हुये, वे दोनों विष्णु की नाभि कमल से उत्पन्न ब्रह्माजी को मारने दौडे, ब्रह्माजी ने उन दोनो राक्षसों को देखकर विष्णुजी की शरण में जाने की सोची, परन्तु विष्णु भगवान उस समय सो रहे थे, तब उन्होने भगवान विष्णु को जगाने हेतु उनके नयनों में निवास करने वाली योगनिद्रा की स्तुति की।

परिणामस्वरूप तमोगुण अधिष्ठात्री देवी विष्णु भगवान के नेत्र नासिका मुख तथा ह्रदय से निकलकर ब्रह्माजी के सामने उपस्थित हो गयी, योगनिद्रा के निकलते ही विष्णु भगवान उठकर बैठ गये, भगवान विष्णु और उन राक्षसों में पांच हजार साल तक युद्ध चलता रहा, अन्त में मधु और कैटभ दोनो राक्षस मारे गये।

ऋषि बोले- अब ब्रह्माजी की स्तुति से उत्पन्न महामाया देवी की वीरता तथा प्रभाव का वर्णन करता हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो।

एक समय देवताओं के स्वामी इन्द्र तथा दैत्यों के स्वामी महिषासुर में सैकडों वर्षों तक घनघोर संग्राम हुआ, इस युद्ध में देवराज इन्द्र की पराजय हुई, और महिषासुर इन्द्रलोक का स्वामी बन बैठा।

अब देवतागण ब्रहमा के नेतृत्व में भगवान विष्णु और भगवान शंकर की शरण में गये।

देवताओं की बातें सुनकर भगवान विष्णु तथा भगवान शंकर क्रोधित हुये, भगवान विष्णु के मुख तथा ब्रह्माजी और शिवजी तथा इन्द्र आदि के शरीर से एक तेज पुंज निकला, जिससे समस्त दिशायें जलने लगीं, और अन्त में यही तेजपुंज एक देवी के रूप में परिवर्तित हो गया।

देवी ने सभी देवताओं से आयुध एवं शक्ति प्राप्त करके उच्च स्वर में अट्टहास किया जिससे तीनों लोकों में हलचल मच गयी।

महिषासुर अपनी सेना लेकर इस सिंहनाद की ओर दौडा, उसने देखा कि देवी के प्रभाव से तीनों लोक आलोकित हो रहे है।

महिषासुर की देवी के सामने एक भी चाल सफ़ल नही हुयी, और वह देवी के हाथों मारा गया, आगे चलकर यही देवी शुम्भ और निशुम्भ राक्षसों का बध करने के लिये गौरी देवी के रूप में अवतरित हुयी।

इन उपरोक्त व्याख्यानों को सुनाकर मेघा ऋषि ने राजा सुरथ तथा बनिया से देवी स्तवन की विधिवत व्याख्या की।

राजा और वणिक नदी पर जाकर देवी की तपस्या करने लगे, तीन वर्ष तक घोर तपस्या करने के बाद देवी ने प्रकट होकर उन्हे आशीर्वाद दिया, इससे वणिक संसार के मोह से मुक्त होकर आत्मचिंतन में लग गया, और राजा सुरथ ने शत्रुओं पर आक्रमण करके विजय प्राप्त करके अपना वैभव प्राप्त कर लिया।

मकरध्वज katha

पवनपुत्र हनुमान बाल-ब्रह्मचारी थे। लेकिन मकरध्वज को उनका पुत्र कहा जाता है। यह कथा उसी मकरध्वज की है।

वाल्मीकि रामायण के अनुसार, लंका जलाते समय आग की तपिश के कारण हनुमानजी को बहुत पसीना आ रहा था। इसलिए लंका दहन के बाद जब उन्होंने अपनी पूँछ में लगी आग को बुझाने के लिए समुद्र में छलाँग लगाई तो उनके शरीर से पसीने के एक बड़ी-सी बूँद समुद्र में गिर पड़ी। उस समय एक बड़ी मछली ने भोजन समझ वह बूँद निगल ली। उसके उदर में जाकर वह बूँद एक शरीर में बदल गई।

एक दिन पाताल के असुरराज अहिरावण के सेवकों ने उस मछली को पकड़ लिया। जब वे उसका पेट चीर रहे थे तो उसमें से वानर की आकृति का एक मनुष्य निकला। वे उसे अहिरावण के पास ले गए। अहिरावण ने उसे पाताल पुरी का रक्षक नियुक्त कर दिया। यही वानर हनुमान पुत्र ‘मकरध्वज’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

जब राम-रावण युद्ध हो रहा था, तब रावण की आज्ञानुसार अहिरावण राम-लक्ष्मण का अपहरण कर उन्हें पाताल पुरी ले गया। उनके अपहरण से वानर सेना भयभीत व शोकाकुल हो गयी। लेकिन विभीषण ने यह भेद हनुमान के समक्ष प्रकट कर दिया। तब राम-लक्ष्मण की सहायता के लिए हनुमानजी पाताल पुरी पहुँचे।

जब उन्होंने पाताल के द्वार पर एक वानर को देखा तो वे आश्चर्यचकित हो गए। उन्होंने मकरध्वज से उसका परिचय पूछा। मकरध्वज अपना परिचय देते हुआ बोला-“मैं हनुमान पुत्र मकरध्वज हूं और पातालपुरी का द्वारपाल हूँ।”

मकरध्वज की बात सुनकर हनुमान क्रोधित होकर बोले- “यह तुम क्या कह रहे हो? दुष्ट! मैं बाल ब्रह्मचारी हूँ। फिर भला तुम मेरे पुत्र कैसे हो सकते हो?” हनुमान का परिचय पाते ही मकरध्वज उनके चरणों में गिर गया और उन्हें प्रणाम कर अपनी उत्पत्ति की कथा सुनाई। हनुमानजी ने भी मान लिया कि वह उनका ही पुत्र है।

लेकिन यह कहकर कि वे अभी अपने श्रीराम और लक्ष्मण को लेने आए हैं, जैसे ही द्वार की ओर बढ़े वैसे ही मकरध्वज उनका मार्ग रोकते हुए बोला- “पिताश्री! यह सत्य है कि मैं आपका पुत्र हूँ लेकिन अभी मैं अपने स्वामी की सेवा में हूँ। इसलिए आप अन्दर नहीं जा सकते।”

हनुमान ने मकरध्वज को अनेक प्रकार से समझाने का प्रयास किया, किंतु वह द्वार से नहीं हटा। तब दोनों में घोर य़ुद्ध शुरु हो गया। देखते-ही-देखते हनुमानजी उसे अपनी पूँछ में बाँधकर पाताल में प्रवेश कर गए। हनुमान सीधे देवी मंदिर में पहुँचे जहाँ अहिरावण राम-लक्ष्मण की बलि देने वाला था। हनुमानजी को देखकर चामुंडा देवी पाताल लोक से प्रस्थान कर गईं। तब हनुमानजी देवी-रूप धारण करके वहाँ स्थापित हो गए।

कुछ देर के बाद अहिरावण वहाँ आया और पूजा अर्चना करके जैसे ही उसने राम-लक्ष्मण की बलि देने के लिए तलवार उठाई, वैसे ही भयंकर गर्जन करते हुए हनुमानजी प्रकट हो गए और उसी तलवार से अहिरावण का वध कर दिया।

उन्होंने राम-लक्ष्मण को बंधन मुक्त किया। तब श्रीराम ने पूछा-“हनुमान! तुम्हारी पूँछ में यह कौन बँधा है? बिल्कुल तुम्हारे समान ही लग रहा है। इसे खोल दो।” हनुमान ने मकरध्वज का परिचय देकर उसे बंधन मुक्त कर दिया। मकरध्वज ने श्रीराम के समक्ष सिर झुका लिया। तब श्रीराम ने मकरध्वज का राज्याभिषेक कर उसे पाताल का राजा घोषित कर दिया और कहा कि भविष्य में वह अपने पिता के समान दूसरों की सेवा करे।

यह सुनकर मकरध्वज ने तीनों को प्रणाम किया। तीनों उसे आशीर्वाद देकर वहाँ से प्रस्थान कर गए। इस प्रकार मकरध्वज हनुमान पुत्र कहलाए।

सोमवार व्रतकथा

हिन्दू धर्म के अनुसार सोमवार के दिन भगवान शिव की पूजा की जाती है। जो व्यक्ति सोमवार के दिन भगवान शिव की पूजा करते हैं उन्हें मनोवांछित फल अवश्य मिलता है।

किसी नगर में एक साहूकार रहता था। उसके घर में धन की कोई कमी नहीं थी लेकिन उसकी कोई संतान नहीं थी जिस वजह से वह बेहद दुखी था। पुत्र प्राप्ति के लिए वह प्रत्येक सोमवार व्रत रखता था और पूरी श्रद्धा के साथ शिवालय में जाकर भगवान शिव और पार्वती जी की पूजा करता था। उसकी भक्ति देखकर मां पार्वती प्रसन्न हो गई और भगवान शिव से उस साहूकार की मनोकामना पूर्ण करने का निवेदन किया। पार्वती जी की इच्छा सुनकर भगवान शिव ने कहा कि "हे पार्वती। इस संसार में हर प्राणी को उसके कर्मों के अनुसार फल मिलता है और जिसके भाग्य में जो हो उसे भोगना ही पड़ता है।" लेकिन पार्वती जी ने साहूकार की भक्ति का मान रखने के लिए उसकी मनोकामना पूर्ण करने की इच्छा जताई। माता पार्वती के आग्रह पर शिवजी ने साहूकार को पुत्र-प्राप्ति का वरदान तो दिया लेकिन साथ ही यह भी कहा कि उसके बालक की आयु केवल बारह वर्ष होगी।

माता पार्वती और भगवान शिव की इस बातचीत को साहूकार सुन रहा था। उसे ना तो इस बात की खुशी थी और ना ही गम। वह पहले की भांति शिवजी की पूजा करता रहा। कुछ समय उपरांत साहूकार के घर एक पुत्र का जन्म हुआ। जब वह बालक ग्यारह वर्ष का हुआ तो उसे पढ़ने के लिए काशी भेज दिया गया।

साहूकार ने पुत्र के मामा को बुलाकर उसे बहुत सारा धन दिया और कहा कि तुम इस बालक को काशी विद्या प्राप्ति के लिए ले जाओ और मार्ग में यज्ञ कराओ। जहां भी यज्ञ कराओ वहीं पर ब्राह्मणों को भोजन कराते और दक्षिणा देते हुए जाना।

दोनों मामा-भांजे इसी तरह यज्ञ कराते और ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देते काशी की ओर चल पड़े। राते में एक नगर पड़ा जहां नगर के राजा की कन्या का विवाह था। लेकिन जिस राजकुमार से उसका विवाह होने वाला था वह एक आंख से काना था। राजकुमार के पिता ने अपने पुत्र के काना होने की बात को छुपाने के लिए एक चाल सोची। साहूकार के पुत्र को देखकर उसके मन में एक विचार आया। उसने सोचा क्यों न इस लड़के को दूल्हा बनाकर राजकुमारी से विवाह करा दूं। विवाह के बाद इसको धन देकर विदा कर दूंगा और राजकुमारी को अपने नगर ले जाऊंगा।

लड़के को दूल्हे का वस्त्र पहनाकर राजकुमारी से विवाह कर दिया गया। लेकिन साहूकार का पुत्र एक ईमानदार शख्स था। उसे यह बात न्यायसंगत नहीं लगी। उसने अवसर पाकर राजकुमारी की चुन्नी के पल्ले पर लिखा कि "तुम्हारा विवाह मेरे साथ हुआ है लेकिन जिस राजकुमार के संग तुम्हें भेजा जाएगा वह एक आंख से काना है। मैं तो काशी पढ़ने जा रहा हूं।"

जब राजकुमारी ने चुन्नी पर लिखी बातें पढ़ी तो उसने अपने माता-पिता को यह बात बताई। राजा ने अपनी पुत्री को विदा नहीं किया जिससे बारात वापस चली गई। दूसरी ओर साहूकार का लड़का और उसका मामा काशी पहुंचे और वहां जाकर उन्होंने यज्ञ किया। जिस दिन लड़के की आयु 12 साल की हुई उसी दिन यज्ञ रखा गया। लड़के ने अपने मामा से कहा कि मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है। मामा ने कहा कि तुम अन्दर जाकर सो जाओ।

शिवजी के वरदानुसार कुछ ही क्षणों में उस बालक के प्राण निकल गए। मृत भांजे को देख उसके मामा ने विलाप शुरू किया। संयोगवश उसी समय शिवजी और माता पार्वती उधर से जा रहे थे। पार्वती ने भगवान से कहा- प्राणनाथ, मुझे इसके रोने के स्वर सहन नहीं हो रहा। आप इस व्यक्ति के कष्ट को अवश्य दूर करें| जब शिवजी मृत बालक के समीप गए तो वह बोले कि यह उसी साहूकार का पुत्र है, जिसे मैंने 12 वर्ष की आयु का वरदान दिया। अब इसकी आयु पूरी हो चुकी है। लेकिन मातृ भाव से विभोर माता पार्वती ने कहा कि हे महादेव आप इस बालक को और आयु देने की कृपा करें अन्यथा इसके वियोग में इसके माता-पिता भी तड़प-तड़प कर मर जाएंगे। माता पार्वती के आग्रह पर भगवान शिव ने उस लड़के को जीवित होने का वरदान दिया| शिवजी की कृपा से वह लड़का जीवित हो गया। शिक्षा समाप्त करके लड़का मामा के साथ अपने नगर की ओर चल दिए। दोनों चलते हुए उसी नगर में पहुंचे, जहां उसका विवाह हुआ था। उस नगर में भी उन्होंने यज्ञ का आयोजन किया। उस लड़के के ससुर ने उसे पहचान लिया और महल में ले जाकर उसकी आवभगत की और अपनी पुत्री को विदा किया।

इधर भूखे-प्यासे रहकर साहूकार और उसकी पत्नी बेटे की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने प्रण कर रखा था कि यदि उन्हें अपने बेटे की मृत्यु का समाचार मिला तो वह भी प्राण त्याग देंगे परंतु अपने बेटे के जीवित होने का समाचार पाकर वह बेहद प्रसन्न हुए। उसी रात भगवान शिव ने व्यापारी के स्वप्न में आकर कहा- हे श्रेष्ठी, मैंने तेरे सोमवार के व्रत करने और व्रतकथा सुनने से प्रसन्न होकर तेरे पुत्र को लम्बी आयु प्रदान की है।

जो कोई सोमवार व्रत करता है या कथा सुनता और पढ़ता है उसके सभी दुख दूर होते हैं और समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।

। मंगलवार व्रत कथा

सर्वसुख, राजसम्मान तथा पुत्र-प्राप्ति के लिए मंगलवार व्रत रखना शुभ माना जाता है। मंगलवार व्रत कथा: एक समय की बात है एक ब्राह्मण दंपत्ति की कोई संतान नहीं थी जिस कारण वह बेहद दुखी थे।

एक समय ब्राह्मण वन में हनुमान जी की पूजा के लिए गया। वहां उसने पूजा के साथ महावीर जी से एक पुत्र की कामना की। घर पर उसकी स्त्री भी पुत्र की प्राप्ति के लिए मंगलवार का व्रत करती थी। वह मंगलवार के दिन व्रत के अंत में हनुमान जी को भोग लगाकर ही भोजन करती थी। एक बार व्रत के दिन ब्राह्मणी ना भोजन बना पाई और ना ही हनुमान जी को भोग लगा सकी। उसने प्रण किया कि वह अगले मंगलवार को हनुमान जी को भोग लगाकर ही भोजन करेगी। वह भूखी प्यासी छह दिन तक पड़ी रही। मंगलवार के दिन वह बेहोश हो गई। हनुमान जी उसकी निष्ठा और लगन को देखकर प्रसन्न हुए। उन्होंने आशीर्वाद स्वरूप ब्राह्मणी को एक पुत्र दिया और कहा कि यह तुम्हारी बहुत सेवा करेगा। बालक को पाकर ब्राह्मणी अति प्रसन्न हुई। उसने बालक का नाम मंगल रखा। कुछ समय उपरांत जब ब्राह्मण घर आया, तो बालक को देख पूछा कि वह कौन है? पत्नी बोली कि मंगलवार व्रत से प्रसन्न होकर हनुमान जी ने उसे यह बालक दिया है। ब्राह्मण को अपनी पत्नी की बात पर विश्वास नहीं हुआ। एक दिन मौका देख ब्राह्मण ने बालक को कुएं में गिरा दिया। घर पर लौटने पर ब्राह्मणी ने पूछा कि "मंगल कहां है?" तभी पीछे से मंगल मुस्कुरा कर आ गया। उसे वापस देखकर ब्राह्मण आश्चर्यचकित रह गया। रात को हनुमानजी ने उसे सपने में दर्शन दिए और बताया कि यह पुत्र उसे उन्होंने ही दिया है। ब्राह्मण सत्य जानकर बहुत खुश हुआ। इसके बाद ब्राह्मण दंपत्ति मंगलवार व्रत रखने लगे। मंगलवार का व्रत रखने वाले मनुष्य हनुमान जी की कृपा व दया का पात्र बनते हैं।

| वामन अवतार कथा |

वामन अवतार भगवान विष्णु का पाचवा अवतार है । भगवान की लीला अनंत है और उसी में से एक वामन अवतार है । इसके विषय में श्रीमद्भगवदपुराण में एक कथा है । वामन अवतार कथानुसार देव और दैत्योंके युद्ध में दैत्य पराजित होने लगते हैं । पराजित दैत्य मृत एवं आहतों को लेकर अस्ताचल चले जाते हैं और दूसरी ओर दैत्यराज बलि इंद्र के वज्र से मृत हो जाते हैं तब दैत्यगुरु शुक्राचार्य अपनी मृत संजीवनी विद्या से बलि और दूसरे दैत्य को भी जीवित एवं स्वस्थ कर देते हैं । राजा बलि के लिए शुक्राचार्यजी एक यज्ञ का आयोजन करते हैं तथ अग्नि से दिव्य रथ, बाण, अभेद्य कवच पाते हैं इससे असुरों की शक्ति में वृद्धि हो जाती है और असुर सेना अमरावती पर आक्रमण करने लगती है ।

इंद्र को राजा बलि की इच्छा का ज्ञान होता है कि राजा बलि इस सौ यज्ञ पूरे करने के बाद स्वर्ग को प्राप्त करने में सक्षम हो जाएंगे, तब इंद्र भगवान विष्णु की शरण में जाते हैं । भगवान विष्णु उनकी सहायता करने का आश्वासन देते हैं और भगवान विष्णु वामन रुप में माता अदिति के गर्भ से उत्पन्न होने का वचन देते हैं । दैत्यराज बलि द्वारा देवों के पराभव के बाद कश्यपजी के कहने से माता अदिति पयोव्रत का अनुष्ठान करती हैं जो पुत्र प्राप्ति के लिए किया जाता है । तब भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी के दिन माता अदिति के गर्भ से प्रकट हो अवतार लेते हैं तथा ब्रह्मचारी ब्राह्मण का रूप धारण करते हैं ।

महर्षि कश्यप ऋषियों के साथ उनका उपनयन संस्कार करते हैं वामन बटुक को महर्षि पुलह ने यज्ञोपवीत, अगस्त्य ने मृगचर्म, मरीचि ने पलाश दण्ड, आंगिरस ने वस्त्र, सूर्य ने छत्र, भृगु ने खड़ाऊं, गुरु देव जनेऊ तथा कमण्डलु, अदिति ने कोपीन, सरस्वती ने रुद्राक्ष माला तथा कुबेर ने भिक्षा पात्र प्रदान किए । तत्पश्चात भगवान वामन पिता से आज्ञा लेकर बलि के पास जाते हैं । उस समय राजा बलि नर्मदा के उत्तर-तट पर अंतिम यज्ञ कर रहे होते हैं ।

वामन अवतारी श्रीहरि, राजा बलि के यहां भिक्षा मांगने पहुंच जाते हैं । ब्राह्मण बने श्रीविष्णु भिक्षा में तीन पग भूमि मांगते हैं । राजा बलि दैत्यगुरु शुक्राचार्य के मना करने पर भी अपने वचन पर अडिग रहते हुए, श्रीविष्णु को तीन पग भूमि दान में देने का वचन कर देते हैं । वामन रुप में भगवान एक पग में स्वर्गादि उर्ध्व लोकों को ओर दूसरे पग में पृथ्वी को नाप लेते हैं । अब तीसरा पीजी रखने को कोई स्थान नहीं रह जाता है । बलि के सामने संकट उत्पन्न हो गया । ऎसे मे राजा बलि यदि अपना वचन नहीं निभाए तो अधर्म होगा । इसिलिए बलि अपना सिर भगवान के आगे कर देता है और कहता है तीसरा पग आप मेरे सिर पर रख दीजिए । वामन भगवान ने ठीक वैसा ही करते हैं और बलि को पटल लोक में रहने का आदेश करते हैं । बलि सहर्ष भवदाज्ञा को शिरोधार्य करता है ।

बलि के द्वारा वचनपालन करने पर, भगवान श्रीविष्णु अत्यन्त प्रसन्न होते हैं और दैत्यराज बलि को वर् मांगने को कहते हैं । इसके बदले में बलि रात-दिन भगवान को अपने सामने रहने का वचन मांग लेता है, श्रीविष्णु को अपना वचन का पालन करते हुए, पातललोक में राजा बलि का द्वारपाल बनना स्वीकार करते हैं ।

G K IN HINDI

*धातु तथा अधातु *
Q. जल पर तैरने वाली धातु कौन सी है ?⇨ सोडियम

Q. प्रकृति में मुक्त अवस्था में कौन सी धातु पायी जाती है ?⇨ चाँदी

Q. कौन सी धातु ठोस अवस्था में नहीं पायी जाती है ?⇨ पारा

Q. एंटीमनी क्या है ?⇨ उपधातु

Q. कौन सी धातु बिजली की अच्छी सुचालक होती है ?⇨ चाँदी

Q. फोटोग्राफी में कौन सा उपयोगी तत्व प्रयुक्त होता है ?⇨ सिल्वर ब्रोमाइट

Q. नीला थोथा का रासायनिक नाम क्या है ?⇨ कॉपर सल्फेट
Q. सबसे कठोर धातु कौन सी है ?⇨ प्लेटिनम

Q. सफेद स्वर्ण किसे कहा जाता है ?⇨ प्लेटिनम
Q. विद्युत बल्व का तन्तु किसका बना होता है ?⇨ टंगस्टन का

Q. कौन सी धातु अचालक की भांति ट्राजिस्टर के रूप में प्रयुक्त होती है ?⇨ जर्मेनियम

Q. किन तत्वों के लवणों द्वारा आतिशबाजी के रंग प्राप्त होते हैं ?⇨ Sr व Ba

Q. किस रेडियोधर्मी तत्व के भारत में विशाल भडार है ?⇨ थोरियम

Q. कलपक्कम के फास्ट ब्रीडर टेस्ट रिएक्टर में कौन सा तत्व ईधन के रूप में प्रयुक्त होता है ?⇨ समृद्ध यूरेनियम

Q. भारी जल क्या है ?⇨ मंदक
Q. सामान्य किस्म का कोयला कौन सा है ?⇨ बिटुमिनम
Q. हैलोजन से सबसे अधिक अभिक्रिया कौन करता है ?⇨ क्लोरीन
Q. प्रकृति में सबसे कठोर पदार्थ कौन सा है ?⇨ हीरा
Q. कार्बन के दो अपरूप कौन से है ?⇨ हीरा और ग्रेफाइट
Q. हीमोग्लोबिन में उपस्थित धातु कौन सी है ?⇨ लोहा
Q. संचायक बैटरियों में कौन सी धातु का प्रयोग करते हैं ?⇨ सीसा
Q वायुयान के निर्माण में कौन सी धातु उपयुक्त होती है ?⇨ प्लेटिनम का
Q. ‘एडम उत्प्रेरक’ किस धातु का नाम है ?⇨ प्लेटिनम का
Q. स्टील में कार्बन का प्रतिशत कितना होता है ?⇨ 0.1 से 1.5%
Q. एल्युमीनियम का मुख्य अयस्क क्या है ?⇨ बॉक्साइट
Q. मायोग्लोबिन कौन सी धातु होती है ?⇨ लोहा
Q. समुद्र में सबसे अधिक मात्रा में कौन सी धातु पाई जाती है ?⇨ सोडियम
Q. कौन सी धातु जल के साथ अभिक्रिया करके ऑक्सीजन गैस पैदा करती है ?⇨ कैडमियम
Q. धातु की प्रकृति कैसी होती है ?⇨ विद्युत धनात्मक
Q. पीतल में कौन सी धातुएँ होती है ?⇨ ताँबा व जस्ता...
[06/10 2:27 pm] Dr.deepak: *📚General Knowledge📚*

1⃣भारतीय रेल नेटवर्क का एशिया में कौनसा स्थान है?
*- दूसरा*

2⃣भारतीय रेलवे बोर्ड की स्थापना कब की गई थी?
*- 1905*

3⃣मनुष्य ने सबसे पहले किस जंतु को पालतू बनाया?
*- कुत्ता*

4⃣विश्व में प्रथम रेल कब चली?
*- 1825 ई. - इंग्लैंड*

5⃣भारतीय रेल बजट को सामान्य बजट से कब अलग किया गया?
*- 1924 ई.*

6⃣भारत में सबसे लंबी दूरी तय करने वाली रेलगाड़ी कौनसी है?
*- विवेक एक्सप्रेस*

7⃣भारत में प्रथम विद्युत इंजन का निर्माण कब प्रारंभ हुआ?
*- 1971 ई.*

8⃣इंटीग्रल कोच फैक्टरी कहाँ है?
*- पैरंबूर (चेन्नई)*

9⃣ब्रिटिश संसद ने भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम कब पारित किया था?
*- जुलाई 1947*

🔟रेलवे कोच फैक्टरी की स्थापना कब हुई?
*- 1988 ई.*

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1⃣भारत और पाकिस्तान के बीच चलने वाली रेलगाड़ी कौनसी है?
*- समझौता व थार एक्सप्रेस*

2⃣भारत में सबसे तेजगति से चलने वाली रेलगाड़ी कौनसी है?
*- गतिमान एक्सप्रेस*

3⃣अंतरिक्ष यात्री को बाह्य आकाश कैसा दिखाई देता है?
*- काला*

4⃣संसद का संयुक्त अधिवेशन कौन बुलाता है?
*- राष्ट्रपति*

5⃣भारत के किस राज्य में राष्ट्रीय राजमार्ग सबसे अधिक है?
*- उत्तर प्रदेश*

6⃣भारत राष्ट्रीय राजमार्ग की कुल लंबाई कितनी है?
*- 70,934 किमी*

7⃣देश में कुल सड़कों की लंबाई में राष्ट्रीय राजमार्ग का योगदान कितना है?
*- 1.7 प्रतिशद*

8⃣भारतीय संघ का राष्ट्रपति किसके परामर्श से कार्य करता है ?
*- प्रधानमंत्री*

9⃣गंधक के साथ रबड को गर्म करने की क्रिया क्या कहलाती है ?
*- वल्कनीकरण*

🔟पश्चिमी और पूर्वी घाट किन पहाड़ियों में मिलते हैं ?
*- नीलगिरि*

 *_🄼🅁. 🄹🄸🅃🄴🄽🄳🄴🅁  🅅🄴🅁🄼🄰_*

1⃣सत्यशोधक समाज की स्थापना किसने की थी ?
*- महात्मा ज्योतिबा फूले*

2⃣टोडा जनजाति किस राज्य में निवास करती है ?
*- तमिलनाडु*

3⃣प्याज-लहसुन में गंध किस तत्व के कारण होती है ?
*- सल्फर*

4⃣संसार में सर्वाधिक दूध उत्पादन किस देश में होता है ?
*- भारत*

5⃣दक्षिण भारत का सर्वोच्च पर्वत शिखर कौनसा है ?
*- अनाईमुदी*

6⃣सरदार सरोवर परियोजना किस नदी पर बनाई गयी है ?
*- नर्मदा*

7⃣तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश के तट का क्या नाम है ?
*- कोरोमंडल तट*

8⃣नीली क्रांति का संबंध किस क्षेत्र से है ?
*- मत्स्य पालन*

9⃣भारत में सर्वाधिक मूंगफली का उत्पादन किस राज्य में होता है ?
*- गुजरात*


Tuesday 24 October 2017

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Alewajind.blogspot.com
Dosto jayada jankari ke liye aap hame comment main likh ker bataye aap ko kis terh ki post chahiye thank you

Govt. वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय 2010 Ki Photos

Aap apana photo pahchan sakte ho
Govt. वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय 2010
✌कुछ दोस्तों के नाम रवि डॉ मुकेश Ramesh Chahal..🖐❤💚💙💓💝🖤💜💛💝💕💟🧡🍓🍓🍍🍍🍒🍎🍇🍈🍊🍉🌽🥝🥒🍑🍌🍊🍉🍔🍟
Om datatrey g maharaj ji ki photo

Mahra haryana map

 चकौर नामक स्थल कहां पर स्थित है?– सोनीपत
स्काईलार्क नामक स्थल कहां पर
स्थित है?– पानीपत
काला अम्ब नामक स्थल कहां पर
स्थित है?– पानीपत
ब्लू जे नामक स्थल कहां पर स्थित
है?– समालखा पानीपत
ताजेवाला नामक स्थल कहां पर
स्थित है?– यमुनानगर
हथनीकुंड नामक स्थल कहां पर
स्थित है?– यमुनानगर
कलेसर नामक स्थल कहां पर
स्थित है?– यमुनानगर
कोयल नामक स्थल कहां पर स्थित है?– कैथल
नीलकन्ति कृष्ण डेम नामक स्थल
कहां पर स्थित है?– कुरुक्षेत्र
रैड रोबिन नामक स्थल कहां पर स्थित
है?– भिवानी
डैरगों नामक स्थल कहां पर स्थित है?– दादरी
रेड बिशप नामक स्थल कहां पर स्थित है?– सिरसा तथा पंचकूला
दोनों जगहों पर है
बबलर जंगल नामक स्थल कहां पर
स्थित है?– ( दारूहेडा )रेवाड़ी
सेन्डपाइपर नामक स्थल कहां पर
स्थित है?– रेवाड़ी
सोहना झील (दमदमा) नामक स्थल कहां पर स्थित
है?– गुरुग्राम (गुडगाँव)
सुल्तानपुर पक्षी विहार नामक स्थल कहां पर स्थित
है?– गुरुग्राम (गुडगाँव)
गौड़ीय मठ नामक स्थल कहां पर
स्थित है?– कुरुक्षेत्र
सूर्य कुंड नामक स्थल कहां पर स्थित
है?– बिलासपुर
सूरज कुंड नामक स्थल कहां पर स्थित
है?– फरीदाबाद
मेगपाई नामक स्थल कहां पर
स्थित है?– फरीदाबाद
बड़खल झील नामक स्थल कहां पर
स्थित है?– फरीदाबाद
अरावली गोल्फ प्ले ग्राउंड नामक स्थल
कहां पर स्थित है?– फरीदाबाद
डबचिक (इसे होडल के नाम से भी जाना जाता है)
नामक स्थल कहां पर स्थित है?– फरीदाबाद× (जिला
पलवल)√√
सफीदों नामक स्थल कहां पर स्थित है?–
जींद
हरियल नामक स्थल कहां पर स्थित है?– जींद
बुलबुल नामक स्थल कहां पर स्थित है?– जींद
अस्थल बोहर नामक स्थल कहां पर स्थित है?– रोहतक
कुबेर तीर्थ नामक स्थल कहां पर स्थित है?–
कुरुक्षेत्र
पीपली (परकित) नामक स्थल कहां पर
स्थित है?– कुरुक्षेत्र
ज्योतिसर सरोवर नामक स्थल कहां पर स्थित है?– कुरुक्षेत्र
रामराय नामक स्थल कहां पर स्थित है?– जींद
ब्लू बार्ड नामक स्थल कहां पर स्थित है?– हिसार
कर्ण झील नामक स्थल कहां पर स्थित है?–
करनाल
उच्छना नामक स्थल कहां पर स्थित है?– करनाल
किंगफिशर नामक स्थल कहां पर स्थित है?– अम्बाला
यादवेंद्र गार्डन नामक स्थल कहां पर स्थित है?– पिंजौर
मोरनी हिल्स नामक स्थल कहां पर स्थित है?–
मोरनी नमक स्थान पर अम्बाला में
श्री महाकालेश्वर मंदिर या मठ नामक स्थल कहां पर
स्थित है?– कलेसर के पास
मुगल गार्डन नामक स्थल कहां पर स्थित है?– पिंजौर

PM Narender Modi ji ki Jeevani

Narendra Modi biography in hindi 2014 का चुनाव का परिणाम कुछ इस तरह रहा, जिसने जनता  की पॉवर को सबके सामने ला खड़ा किया. बच्चा – बच्चा नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर देखने को आतुर था. जिस कारण से भारी बहुमत के साथ नरेन्द्र मोदी ने जीत हासिल की और 30 सालों के रिकॉर्ड को तोडा. भारत मे 2014 का चुनाव का रिजल्ट परिवार वाद को ख़त्म करने का पहला पायदान रखा. 16 मई 2014 एक ऐतिहासिक दिन बन गया, इस दिन भारतीय एकता को हर दुश्मन ने करीब से देखा.



श्री नरेन्द्र मोदी  गुजरात की सफल राजनीति के प्रतीक हैं, इनका यह अनुभव ही सभी भारतियों के लिए एक नवीन युग का आधार हैं. प्रशासनिक प्रतिभा व द्रण संकल्प के साथ एक मजबूत हस्ती के रूप में सामने आये. श्री नरेंद्र मोदी का नाम पहले गुजरात की राजनीती व अब सम्पूर्ण भारत की राजनीती में सुनहरे अक्षर में लिखा है. एक चाय का स्टाल चलाने वाले साधारण से इन्सान का प्रधानमंत्री बनने का सफ़र काफी उतार चढ़ाव से भरा रहा. 10 सालों तक लगातार गुजरात में राज्य करने के बाद भारत देश के प्रधानमंत्री बने मोदी जी स्वाभाव से बहुत साधारण व मजबूत इरादे वाले इन्सान है. अभी देश के कालेधन की रोके के लिए प्रधानमोदी जी ने  बंद किये 500 और 1000 रूपए के नोट.

नरेन्द्र मोदी का जीवन परिचय (Narendra Modi biography in hindi)
क्रमांक जीवन परिचय बिंदु नरेंद्र मोदी जीवन परिचय
1.       पूरा नाम नरेंद्र दामोदरदास मोदी
2.       धर्म हिन्दू (गुजराती)
3.       जन्म 17 सितम्बर 1950
4.       जन्म स्थान वादनगर, गुजरात
5.       माता-पिता हीराबेन मोदी, दामोदरदास मूलचंद
6.       विवाह जशोदाबेन मोदी (1968)
7.       राजनैतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी
नरेन्द्र मोदी  का जन्म 17 सितम्बर 1950 में वदनगर मेहसाणा डिस्ट्रिक्ट में हुआ. नरेन्द्र मोदी के पिता का नाम दामोदर दास मूलचंद एवम माता का नाम हीरा बेन हैं. नरेन्द्र मोदी  के पिता बहुत साधारण तेलीय जाति के व्यक्ति थे, जिनके 6 संताने थी जिनमें से एक नरेन्द्र मोदी  था. नरेन्द्र मोदी अपने पिता के साथ  रेलवे स्टेशन पर चाय का स्टाल लगाते थे. इनकी पढाई में बहुत रूचि नहीं थी, पर इनके शिक्षक के अनुसार वे कुशल वक्ता थे.वाद-विवाद में नरेंद्र मोदी को कोई पकड़ नहीं सकता था. मोदी जी ने वडनगर से स्कूल की पढाई पूरी की, व् राजनीती विज्ञान में ग्रेजुएशन किया. बचपन से ही मोदी जी को देश के प्रति प्रेम था, उन्होंने 8 साल की उम्र में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) में अपना पंजीकरण करा लिया था, ये एक शक्तिशाली हिन्दू राष्ट्रवादी समूह है, जो भारत के संविधान की बातों के खिलाफ धर्मनिरपेक्षता नहीं चाहता था, वो समस्त देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता था. हिंदुत्व की ये बात बीजेपी की जड़ है.



1967 में 13 साल की उम्र में ही नरेन्द्र मोदी का जसोबेन नामक कन्या से विवाह करा दिया गया. 18 की उम्र  में जसोबेन का गौना कर उन्हें घर लाया गया, लेकिन छोटे नरेन्द्र मोदी  को विवाह में कभी रूचि नहीं थी, इस कारण उन्होंने घर छोड़ दिया. नरेन्द्र मोदी  हिमालय पर जा कर रहे और वहां से उन्होंने नयी जिन्दगी की तरफ रुख किया. घर छोड़ने के बाद नरेन्द्र मोदी  कभी पीछे नहीं मुड़े, इसलिए उन्होंने जसोबेन के उनके विवाह का सच कभी सामने नहीं रखा, क्यूंकि स्वाभाविक तौर पर उनका अपनी पत्नी से कोई नाता नहीं था. लेकिन हडकम जब मचा जब 2014 के नामांकन पत्र के दौरान नरेन्द्र मोदी ने खुद को विवाहित बताया.  जिसे विपक्ष ने काफी हवा देने कि कोशिश की लेकिन नरेन्द्र मोदी  जैसे देशभक्त को जनता  ने पहचान लिया था.

नरेन्द्र मोदी जी का राजनैतिक सफ़र –

खैर, घर छोड़ने के बाद नरेन्द्र मोदी  ने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (ABVP) किया, यहाँ वे पुरे समय आयोजक के रूप में कार्य करने लगे. देश की विकट परिस्तिथि में मोदी जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. जैसे 1974 में भ्रष्टाचार विरोधी व 1975-77 में जब इंदिरा गाँधी की सरकार ने आपातकाल की घोषणा की थी. 1970-75 के बीच कई दिग्गज नेताओ ने वर्तमान सरकार का विरोध किया. जिनमे से एक थे जय प्रकाश नारायण. जिनके सानिध्य में नरेन्द्र मोदी  ने भी इस विरोध का साथ दिया. यहीं से श्री नरेन्द्र मोदी  के राजनैतिक जीवन की शुरुवात हुई, व उनके जीवन का आधार बना.





1985 में नरेन्द्र मोदी  को RSS द्वारा भारतीय जनता पार्टी (BJP) में दाखिल कराया गया. 1988 में नरेन्द्र मोदी  गुजरात के आयोजन सचिव बनाये गये. नरेन्द्र मोदी  जी के योगदान से 1995 में भारतीय जनता पार्टी (BJP) को गुजरात चुनाव में काफी सहयोग मिला. जिस कारण 1995 में नरेन्द्र मोदी  को राष्ट्रीय सचिव बनाया गया और यहाँ से श्री नरेन्द्र मोदी ने नई दिल्ली की तरफ रुख  किया, युवा नेता को इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी